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________________ ३४० प्रवचनसार का सार यहाँ आचार्यदेव यह कहना चाहते हैं कि कोई ऊपर की ओर मुँह करके चल रहा हो, तब उसके पैर के नीचे आकर जीव मरे या नहीं मरे; लेकिन हिंसा का पाप अवश्य लगेगा और यदि कोई सावधानी पूर्वक चार हाथ आगे की जमीन देखकर चल रहा हो, उस समय यदि कोई सूक्ष्म जीव पैरों के नीचे आकर मर भी जाए, तब भी हिंसा नहीं होती; क्योंकि जीवों के मरने या नहीं मरने से हिंसा का कोई संबंध नहीं है। हिंसा का संबंध अयत्नाचार से है, सावधानीपूर्वक आचरण करने वाले मुनिराज के निमित्त से यदि हिंसा भी हो, तब भी वे अहिंसक हैं और अप्रयत आचार वाले गृहस्थों के द्वारा हिंसा नहीं भी हो, तब भी वे हिंसक ही हैं। इसी संबंध में गाथा २१७ की टीका इसप्रकार है "अशुद्धोपयोग अन्तरंग छेद है; परप्राणों का विच्छेद बहिरंग छेद है। इनमें से अन्तरंग छेद ही विशेष बलवान है, बहिरंग छेद नहीं; क्योंकि परप्राणों के व्यपरोपण का सद्भाव हो या असद्भाव, जो अशुद्धोपयोग के बिना नहीं होता ऐसे अप्रयत आचार से प्रसिद्ध होनेवाला (जानने में आनेवाला) अशुद्धोपयोग का सद्भाव जिसके पाया जाता है, उसके हिंसा के सद्भाव की प्रसिद्धि सुनिश्चित है; और इसप्रकार जो अशुद्धोपयोग के बिना होता है - ऐसे प्रयत आचार से प्रसिद्ध होनेवाला अशुद्धोपयोग का असद्भाव जिसके पाया जाता है, उसके परप्राणों के व्यपरोपण के सद्भाव में भी बंध की अप्रसिद्धि होने से, हिंसा के अभाव की प्रसिद्धि सुनिश्चित है। ___ अंतरंग छेद ही विशेष बलवान है, बहिरंग छेद नहीं - ऐसा होने पर भी बहिरंग छेद अंतरंग छेद का आयतन मात्र है; इसलिए बहिरंग छेद को स्वीकार तो करना ही चाहिये अर्थात् उसे मानना ही चाहिये।" इस टीका में स्पष्ट कहा है कि अशुद्धोपयोग हिंसा ही है। हम सभी निरन्तर हिंसक हैं; क्योंकि हम लोग शुद्धोपयोग में नहीं हैं। इक्कीसवाँ प्रवचन अरे भाई ! जो प्रवचन सुनते हैं, जिन्होंने कभी चींटी को भी नहीं मारा, वे भी हिंसक ही हैं; क्योंकि वे अशुद्धोपयोग में हैं। जिनके शुद्धोपयोग नहीं है; वे हिंसक ही हैं, शुद्धोपयोगी ही एकमात्र अहिंसक है। यद्यपि गृहस्थों को भी इस बात का विचार करना चाहिए; तथापि कदाचित् वे न भी करें; तब भी मुनिराजों को तो इस प्रकरण का गहराई से अध्ययन करके इस महासत्य को स्वीकार करना ही चाहिए और जितना भी संभव हो, जीवन में अपनाना चाहिए। तदनन्तर अन्तरंग छेद सर्वथा त्याज्य है - ऐसा उपदेश करनेवाली २१८वीं गाथा इसप्रकार है - अयदाचारोसमणो छस्सुवि कायेसु वधकरोत्ति मदो। चरदि जदं जदि णिच्चं कमलं व जले णिरुवलेवो ।।२१८।। ( हरिगीत ) जलकमलवत निर्लेप हैं जो रहें यत्नाचार से। पर अयत्नाचारि तो षट्काय के हिंसक कहे ।।२१८।। अप्रयत आचारवाला श्रमण छहों काय संबंधी वध करनेवाला मानने में आया है; यदि सदा प्रयतरूप से आचरण करे तो जल में कमल की भाँति निर्लेप कहा गया है। इस गाथा में कहा है कि आचरण की शुद्धि बहुत जरूरी है। यद्यपि परवस्तु के कारण रंचमात्र भी हिंसा नहीं होती; तथापि परिणामों की विशुद्धि के लिए अप्रयत्नाचार को तो छोड़ना ही चाहिए। इसी गाथा का भावार्थ इसप्रकार है - ___ “शास्त्रों में अप्रयत-आचारवान् अशुद्धोपयोगी को छह काय का हिंसक कहा है और प्रयत आचारवान् शुद्धोपयोगी को अहिंसक कहा है; इसलिए शास्त्रों में जिस-जिस प्रकार से छहकाय की हिंसा का निषेध किया गया हो, उस-उस समस्त प्रकार से अशुद्धोपयोग का निषेध समझना चाहिए।" यहाँ अशुद्धोपयोग के निषेध से तात्पर्य अशुभोपयोग और शुभोपयोग 167
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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