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________________ बाईसवाँ प्रवचन प्रवचनसार परमागम में समागत चरणानुयोग सूचक चूलिका पर चर्चा चल रही है। जिसमें अभी तक २१९वीं गाथा तक चर्चा हो चुकी है। गाथा २०१ से प्रारम्भ होनेवाली इस चरणानुयोगसूचक चूलिका में निम्नांकित अवान्तर अधिकार हैं। पहले अवान्तर अधिकार का नाम आचरणप्रज्ञापन है, जो गाथा २०१ से २३१ तक चलता है। दूसरे अवान्तर अधिकार का नाम मोक्षमार्गप्रज्ञापन है, जो गाथा २३२ से २४४ तक है, तीसरे अवान्तर अधिकार का नाम शुभोपयोगप्रज्ञापन है; जो गाथा २४५ से २७० तक है और अन्तिम पाँच गाथाओं के प्रकरण को पंचरत्न कहते हैं। आचरणप्रज्ञापन में अबतक हुई चर्चा के संदर्भ में यह प्रश्न उपस्थित होता है कि जब परद्रव्य के कारण आत्मा को रंचमात्र भी सुख-दुःख नहीं होता, बंध नहीं होता; तब परिग्रह तो परद्रव्य है, उसके त्याग की बात क्यों की जाती है ? इसका उत्तर देते हुए आचार्यश्री ने कहा है कि यद्यपि परद्रव्य के कारण रंचमात्र भी सुख-दुःख नहीं होता; तथापि परद्रव्य की उपस्थिति इस बात की सूचक है कि हमारा परद्रव्य के प्रति एकत्व-ममत्व है; अतएव परद्रव्य का त्याग अत्यंत आवश्यक है। वस्तुत: यह त्याग परद्रव्य का नहीं; अपितु उसके प्रति होनेवाले एकत्व-ममत्व का त्याग है, उसके प्रति होनेवाले राग का त्याग है। ण हि णिरवेक्खो चागोण हवदि भिक्खुस्स आसयविसुद्धी। अविसुद्धस्स य चित्ते कहं णु कम्मक्खओ विहिदो।।२२०।। (हरिगीत) यदि भिक्षु के निरपेक्ष न हो त्याग तो शुद्धि न हो। तो कर्मक्षय हो किसतरह अविशुद्ध भावों से कहो।।२२०।। बाईसवाँ प्रवचन ३४५ ___यदि निरपेक्ष त्याग न हो तो भिक्षु के भाव की विशुद्धि नहीं होती और जो भाव में अविशुद्ध है; उसके कर्मक्षय कैसे हो सकता है ? इस गाथा की टीका का भाव इसप्रकार है - "जैसे छिलके के सद्भाव में चावलों में पाई जानेवाली रक्ततारूप अशुद्धता का त्याग नहीं होता; उसीप्रकार बहिरंग संग के सद्भाव में अशुद्धोपयोगरूप अंतरंग छेद का त्याग नहीं होता और उसके सद्भाव में शुद्धोपयोगमूलक कैवल्य (मोक्ष) की उपलब्धि नहीं होती। इससे ऐसा कहा गया है कि अशुद्धोपयोगरूप अंतरंग छेद के निषेधरूप प्रयोजन की अपेक्षा रखकर किया जानेवाला उपधि का निषेध अन्तरंग छेद का ही निषेध है।" __छिलके सहित चावल को धान कहते हैं। छिलके के नीचे और चावलों के ऊपर जो लाल-लाल भाग होता है; उसे धोकर, कूटकर हटाया जाता है। जबतक छिलका नहीं हटाया जाय, तबतक उस लाल हिस्से को भी नहीं हटाया जा सकता। उसीप्रकार जबतक परिग्रह का त्याग नहीं हो, तबतक शुद्धोपयोग संभव नहीं है। मैं एक बात और स्पष्ट करना चाहता हूँ कि यह वही गाथा है जिसका आश्रय लेकर लोग कहते हैं कि शुद्धोपयोग मुनियों के ही होता है; क्योंकि इस टीका में लिखा है कि परिग्रह के त्याग के बिना शुद्धोपयोग संभव नहीं है। अरे भाई ! इसका समाधान यह है कि यह गाथा इस अर्थ में है कि मुनियों के योग्य जो शुद्धोपयोग होता है; वह रंचमात्र भी परिग्रह होगा तो नहीं होगा। उपधि अर्थात् परिग्रह ऐकान्तिक अन्तरंग छेद है। यदि बाह्य में परिग्रह विद्यमान है तो वह अन्तरंग छेद है। उस परिग्रह को यह कहकर नहीं रखा जा सकता कि यह तो बाहर की चीज है, परद्रव्य है, पुण्य के उदय से मिली है। इस सन्दर्भ में गाथा २२१ की टीका का भाव इसप्रकार है - 169
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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