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________________ ३२० प्रवचनसार का सार ३२१ मैं यहाँ इस बात की ओर विशेष ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ कि यह प्रकरण देह, धनादि से भिन्नता बतलानेवाला होने से स्थूल हो - ऐसा नहीं है। ऐसा भी नहीं समझना चाहिए कि प्रवचनसार में मात्र देह, धनादिक से भिन्नता बतलाई है, उसके बाद समयसार में रागादि से भिन्नता, केवलज्ञान से भिन्नता बताकर मोक्षमार्ग पूरा करेंगे। ___अरे भाई ! २००वीं गाथा तक पहुँचकर आचार्यदेव इसी प्रवचनसार ग्रन्थ में मोक्ष की बात बतलाएंगे। जिनकी स्त्री, पुत्र, देह से एकत्वबुद्धि छूटेगी, कर्तृत्वबुद्धि छूटेगी तो उनकी राग में एकत्वबुद्धि-कर्तृत्वबुद्धि भी छूटेगी ही। राग जीव की पर्याय में होता है तथा 'य: परिणमति स कर्ता' के अनुसार जीव राग का कर्ता भी है; लेकिन जिसका देह, धनादिक में एकत्व छूट गया है; वह उस राग में ऐसी कर्तृत्वबुद्धि नहीं करेगा कि यह राग करने योग्य है। वह जीव यही समझेगा कि यह राग तो परद्रव्य के उदय की बलवत्ता से हुआ है अथवा वह यह समझेगा कि पर्यायगत योग्यता से हुआ है तथा पर्याय की कर्ता पर्याय है। इसके बाद, आचार्यदेव ऐसा प्रश्न करते हैं कि जिनने शुद्धात्मा को उपलब्ध किया है ऐसे सकलज्ञानी (सर्वज्ञ) क्या ध्याते हैं ? णिहदघणधादिकम्मो पच्चक्खं सव्वभावतच्चण्ह । णेयंतगदो समणो झादि कमटुं असंदेहो ।।१९७।। (हरिगीत) घन घातिकर्म विनाश कर प्रत्यक्ष जाने सभी को। संदेहविरहित ज्ञेय ज्ञायक ध्यावते किस वस्तु को ।।१९७।। जिनने घनघातिकर्म का नाश किया है, जो सर्व पदार्थों के स्वरूप को प्रत्यक्ष जानते हैं और जो ज्ञेयों के पार को प्राप्त हैं, ऐसे संदेह रहित श्रमण किस पदार्थ को ध्याते हैं ? इस गाथा का भाव यह है कि जो देह और धन से भिन्न अपने को बीसवाँ प्रवचन जानता है और अपनी आत्मा का ध्यान करता है, वह घातिया कर्मों का नाश कर देता है। 'मैं देह, धनादि नहीं हूँ तथा मैं इनका कर्ता भोक्ता नहीं हूँ' ऐसी मान्यता से मिथ्यात्व कर्म का नाश हुआ है और जब इन पदार्थों से राग छूटेगा तभी चारित्रमोहनीय कर्म का नाश होगा तथा जब दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय - इन दोनों का अभाव हो जाएगा, तब एक समय बाद निश्चितरूप से ज्ञानावरण, दर्शनावरण व अंतराय कर्म का अभाव हो जाएगा तथा केवलज्ञान हो जाएगा। इसप्रकार प्रवचनसार ग्रन्थ में कुन्दकुन्दाचार्य ने इसी शैली में मोक्ष तक पहुँचने की बात कह दी है। इसके बाद, इसी गाथा की टीका इसप्रकार है - "लोक को (१) मोह का सद्भाव होने से तथा (२) ज्ञानशक्ति के प्रतिबन्धक का सद्भाव होने से, वह तृष्णा सहित है तथा उसे पदार्थ प्रत्यक्ष नहीं है; इसलिये अभिलषित, जिज्ञासित और संदिग्ध पदार्थ का ध्यान करता हुआ दिखाई देता है; परन्तु घनघातिकर्म का नाश किया जाने से मोह का अभाव होने के कारण तथा ज्ञानशक्ति के प्रतिबन्ध का अभाव होने से तृष्णा नष्ट की गई है तथा समस्त पदार्थों का स्वरूप प्रत्यक्ष है तथा ज्ञेयों का पार पा लिया है; इसलिये भगवान सर्वज्ञदेव अभिलाषा नहीं करते, जिज्ञासा नहीं करते और संदेह नहीं करते; तब फिर (उनके) अभिलषित, जिज्ञासित और संदिग्ध पदार्थ कहाँ से हो सकता है ? ऐसा है तब फिर वे क्या ध्याते हैं ?" टीका में यह कहा गया है कि दुनिया के सारे लोग तीन तरह के पदार्थों का ध्यान करते हैं। वे तीन प्रकार के पदार्थ अभिलषित, जिज्ञासित और संदिग्ध हैं। अभिलषित पदार्थ वे हैं जिन्हें लोग चाहते हैं जैसे - स्त्री, पुत्र, धनादि । जिज्ञासित पदार्थ वे हैं, जिनको सिर्फ जानने की 157
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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