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________________ ३१८ प्रवचनसार का सार संयोग से आत्मा को क्या लेना देना ? ये सभी संयोग तो पुण्य के उदय से प्राप्त हुए हैं, जो कि वृक्षों की छाया के समान क्षणभंगुर हैं। अब, ‘अध्रुवपने के कारण आत्मा के अतिरिक्त दूसरा कुछ भी उपलब्ध करने योग्य नहीं है ऐसा उपदेश देनेवाली गाथा १९३ इसप्रकार है देहा वा दविणा वा सुहदुक्खा वाध सत्तुमित्तजणा। जीवस्स ण संति धुवा धुवोवओगप्पगो अप्पा ।।१९३।। (हरिगीत) अरि-मित्रजन धन्य-धान्यसुख-दुख देह कुछ भी ध्रुव नहीं। इस जीव के ध्रुव एक ही उपयोगमय यह आतमा ।।१९३।। शरीर, धन, सुख-दुःख अथवा शत्रु-मित्रजन जीव के ये कुछ भी ध्रुव नहीं हैं; ध्रुव तो एक उपयोगात्मक आत्मा है। ____ मैं यहाँ प्रवचनसार की इस शैली पर विशेष ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ कि इस ग्रन्थ में बारम्बार शरीर, धनादिक को ही अध्रुव में गिनाया है, इन अध्रुव पदार्थों में राग-द्वेष की चर्चा तक नहीं की। रागद्वेषादि को न तो ध्रुव आत्मा में ही लिया और न ही अध्रुव संयोगों में । अरे भाई ! बात तो रागादिक छोड़ने की ही चल रही है। जिनसे हमें राग है - ऐसे स्त्री-पुत्र और धनादिक में एकत्व छोड़ने का तात्पर्य ही यही है कि इनसे राग छोड़ना है। जिसप्रकार कोई बाप अपने बेटे को समझाता है कि बेटा ! 'वेश्या विष बुझी कटारी' अर्थात् वेश्या विष से बुझी हुई कटार है, बहुत स्वार्थी है, बर्बाद कर देगी, समाज में बदनाम कर देगी। बाप ने जो यह सब कहा, वेश्या की निन्दा की; वह वेश्या की निन्दा नहीं; अपितु बेटे के अन्दर वेश्या के प्रति जो राग है, आकर्षण है; उसकी ही निन्दा है। यह उपदेश वेश्या को छोड़ने का नहीं है। क्योंकि वेश्या तो पहले से ही छूटी हुई है। यह उपदेश तो वेश्या के प्रति राग छोड़ने का है। इसप्रकार भाषा तो होती है उस व्यक्ति को छोड़ने की और भाव होता है उनके प्रति राग छोड़ने का। बीसवाँ प्रवचन इसीप्रकार यहाँ पर आचार्यदेव ने देह, धनादिक के प्रति राग ही छुड़ाया है; क्योंकि ये देह, धनादि पदार्थ तो कभी जीव के हुए ही नहीं हैं। ये पदार्थ तो पुण्य के अस्त होने पर स्वत: ही छूट जाते हैं। तदनन्तर 'शुद्धात्मा की उपलब्धि से क्या लाभ है ?' इस बात का निरूपण करनेवाली गाथायें प्राप्त होती हैं; जो इसप्रकार हैं - जो एवं जाणित्ता झादि परं अप्पगं विसुद्धप्पा। सागारोऽणागारो खवेदि सो मोहदुग्गंठिं ।।१९४।। जो णिहदमोहगंठी रागपदोसे खवीय सामण्णे। होजं समसुहदुक्खो सो सोक्खं अक्खयं लहदि ।।१९५।। (हरिगीत ) यह जान जो शुद्धातमा ध्यावें सदा परमातमा । दुठ मोह की दुर्ग्रन्थि का भेदन करें वे आतमा ।।१९४।। मोहग्रन्थी राग-रुष तज सदा ही सुख-दुःख में। समभाव होवह श्रमण ही बस अखयसुख धारण करें।।१९५।। जो ऐसा जानकर विशुद्धात्मा होता हुआ परम आत्मा का ध्यान करता है, वह - साकार हो या अनाकार - मोहदुग्रंथि का क्षय करता है। ___ जो मोहग्रंथि को नष्ट करके, राग-द्वेष का क्षय करके, समसुखदुःख होता हुआ श्रमणता (मुनित्व) में परिणमित होता है, वह अक्षय सुख को प्राप्त करता है। इन गाथाओं में यह कहा गया है कि जो व्यक्ति स्वयं को 'मैं शुद्ध आत्मा हूँ' ऐसा जानता है; वह व्यक्ति - चाहे साकार अर्थात् ज्ञान उपयोग वाला हो या अनाकार अर्थात् दर्शन उपयोग वाला हो अथवा चाहे मुनि हो या श्रावक हो - अपनी मोहरूपी गांठ को खोल देता है अथवा उसकी मोहरूपी गांठ खुल जाती है और जिसकी मोहग्रन्थि खुल जाती है, वह श्रमण राग-द्वेष का क्षय करके समताभाव को धारण करता हुआ अनंत सुख को प्राप्त करता है अर्थात् समस्त विकारों और दुखों से मुक्त हो जाता है। ___ 156
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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