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________________ ३२२ प्रवचनसार का सार इच्छा होती है; लेकिन प्राप्त करने की नहीं, जैसे- सुमेरुपर्वत चाहिए तो नहीं है, लेकिन देखना चाहते हैं; ताजमहल चाहिए तो नहीं है, लेकिन एक बार देखना है; अमेरिका में जाकर रहना तो नहीं है; लेकिन एकबार अमेरिका देखना जरूर है। इसप्रकार जिज्ञासित पदार्थ वे हैं, जिनको सिर्फ जानने की इच्छा है; संदिग्ध पदार्थ वे हैं, जिसमें संदेह हो कि पदार्थ इसप्रकार है, अन्यप्रकार । इसप्रकार संसारी प्राणी इन तीनप्रकार के पदार्थों का ध्यान करते हैं तथा भगवान इन तीनों का ही ध्यान नहीं करते हैं, भगवान को अभिलाषा नहीं होने से वे अभिलषित पदार्थों का ध्यान नहीं करते हैं, सारा लोकालोक जानने में आ जाने से जिज्ञासा नहीं रहने के कारण जिज्ञासित पदार्थों का ध्यान नहीं करते हैं, किसी भी पदार्थ में संशय नहीं होने से संदिग्ध पदार्थों का ध्यान नहीं करते हैं। भगवान अपने सुखस्वरूप भगवान आत्मा का ही ध्यान करते हैं अथवा प्राप्त करने की अपेक्षा से सुख का ध्यान करते हैं अन्य किसी भी पदार्थ का ध्यान नहीं करते हैं। पूर्वोक्त गाथा में आचार्य ने यह प्रश्न उपस्थित किया था कि 'जिनने घनघाति कर्म का नाश किया है, जो सर्व पदार्थों के स्वरूप को प्रत्यक्ष जानते हैं और जो ज्ञेयों के पार को प्राप्त हैं, ऐसे संदेह रहित श्रमण किस पदार्थ को ध्याते हैं ?' और मुक्ति का मार्ग क्या है ? - इसी प्रश्न के उत्तरस्वरूप गाथा १९८-१९९ हैं, जो इसप्रकार हैं सव्वाबाधविजुत्तो समंतसव्वक्खसोक्खणाण्ड्ढो । भूदो अक्खातीदो झादि अणक्खो परं सोक्खं । । १९८ । । एवं जिणा जिनिंदा सिद्धा मग्गं समुट्ठिदा समणा । जादा णमोत्थु तेसिं तस्स य णिव्वाणमग्गस्स ।। १९९ ।। ( हरिगीत ) अतीन्द्रिय जिन अनिन्द्रिय अर सर्व बाधा रहित हैं। चहुँ ओर से सुख-ज्ञान से समृद्ध ध्यावे परमसुख ।। १९८ ।। 158 बीसवाँ प्रवचन ३२३ निर्वाण पाया इसी मग से श्रमण जिन व न 1 ज न द निर्वाण अर निर्वाणमग को नमन बारंबार हो । । १९९ ।। अनिन्द्रिय और इन्द्रियातीत हुआ आत्मा सर्व बाधा रहित और सम्पूर्ण आत्मा में समंत (सर्वप्रकार के, परिपूर्ण) सौख्य तथा ज्ञान से समृद्ध वर्तता हुआ परम सौख्य का ध्यान करता है। जिन जिनेन्द्र और श्रमण को, (अर्थात् सामान्यकेवली, तीर्थंकर और मुनि) जो कि इस (पूर्वोक्त ही) प्रकार से मार्ग में आरुढ़ होते हुए सिद्ध हुए हैं और उस निर्वाण मार्ग को नमस्कार हो । 'जिन' का तात्पर्य ऐसे भगवान हैं; जो कि अरहंत तीर्थंकर हुए बिना मोक्ष गए हैं तथा 'जिनेन्द्र' अर्थात् तीर्थंकर और श्रमण अर्थात् सामान्य केवली हैं। ये सभी पूर्वोक्त प्रकार मार्ग पर आरुढ़ होते हुए सिद्ध हुए हैं। यही मोक्ष जाने का रास्ता है। आचार्यदेव कहते हैं कि उस मोक्षमार्ग पर चलने की विधि क्या है ? तथा उस पर कैसे चलना पड़ता है ? यह सब हम चरणानुयोग सूचक चूलिका में कहेंगे। इसप्रकार आचार्य ने अगले अधिकार की भूमिका भी कह दी। आचार्य स्पष्ट करते हैं कि हमने मोक्ष का मार्ग तो यहाँ बता दिया है तथा 'मोक्षमार्ग पर चलनेवाले क्या-क्या करेंगे ?' इसका सारा वर्णन चरणानुयोगसूचक चूलिका में करेंगे। इस संबंध में इसी गाथा की टीका भी द्रष्टव्य है - " सभी सामान्य चरमशरीरी, तीर्थंकर और अचरमशरीरी मुमुक्षु इसी यथोक्त शुद्धात्मतत्वप्रवृत्तिलक्षण विधि से प्रवर्तमान मोक्षमार्ग को प्राप्त करके सिद्ध हुए; किन्तु ऐसा नहीं है कि किसी दूसरी विधि से भी सिद्ध हों। इससे निश्चित होता है कि केवल यह एक ही मोक्ष का मार्ग है, दूसरा नहीं। अधिक विस्तार से बस हो! उस शुद्धात्मतत्व में प्रवर्ते हुए
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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