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________________ २४ साधु हूँ। उनका वेष ही सबकुछ कह देता है। सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्ररूप पर्याय से परिणत त्रिकालीध्रुव आत्मा ही धर्मात्मा है । यहाँ यदि अकेले त्रिकाली ध्रुव आत्मा को ही धर्म कहते तो निगोदिया आत्मा भी धर्मात्मा हो जाता। इसका अर्थ यह है कि यहाँ धर्मात्मा शब्द पर्याय की अपेक्षा है, द्रव्य की अपेक्षा नहीं । इस बात की चर्चा आचार्यदेव इस गाथा में करते हैं - परिणमदि जेण दव्वं तक्कालं तम्मयं त्ति पण्णत्तं । तम्हा धम्मपरिणदो आदा धम्मो मुणेयव्वो ॥८॥ ( हरिगीत ) प्रवचनसार का सार जिसकाल में जो दरव जिस परिणाम से हो परिणमित । हो उसीमय वह धर्मपरिणत आतमा ही धर्म है ||८|| द्रव्य जिस समय जिस भाव से परिणत होता है, उस समय वह उस रूप ही होता है - ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने कहा है; अतः धर्मपरिणत आत्मा को धर्म ही मानना चाहिए। अरे, भाई ! जलता हुआ ईंधन; ईंधन नहीं, अग्नि है। हम कहते हैं कि यह आग है.. दूर रहो ; इससे यह स्पष्ट है कि जिस पर्याय से जो परिणमित होता है; वह वही है। इसलिए धर्म पर्याय से परिणत आत्मा ही धर्म है। धर्म अर्थात् चारित्र | चारित्र अर्थात् सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र । इन तीनों से परिणमित आत्मा ही धर्मात्मा है। धर्मात्मा नहीं, अपितु साक्षात् धर्म है, जैसाकि रत्नकरण्ड श्रावकाचार में कहा है - न धर्मो धार्मिकै बिना । धर्म धर्मात्माओं के बिना नहीं होता। यहाँ आचार्यदेव यह कह रहे हैं कि धर्मात्मा ही धर्म है; क्योंकि इसके अतिरिक्त कोई धर्म है ही नहीं । क्या ईंधन अलग एवं अग्नि अलग ऐसा माना जा सकता है ? क्या किसी ने ईंधन के बिना अग्नि देखी है ? कहीं ईंधन के बिना अग्नि हो तो बताइए । जहाँ भी अग्नि का अस्तित्व है, वहाँ वह जलती ही 9 पहला प्रवचन दिखाई देगी। ऐसे ही यदि धर्म से परिणत आत्मा को ही वास्तविक धर्म नहीं कहेंगे तो फिर जगत में धर्म का अस्तित्व ही नहीं होगा; क्योंकि धर्म का वास्तविक स्थान ही आत्मा है। अतः धर्म से परिणत आत्मा ही धर्म है । २५ इसी मर्म को आचार्य दसवीं गाथा में भी उद्घाटित करते हैं - विणा परिणाम अत्थो अत्थं विणेह परिणामो । दव्वगुणपज्जयत्थो अत्थो अत्थित्तणिव्वत्तो ।। १० ।। ( हरिगीत ) परिणाम बिन ना अर्थ है अर अर्थ बिन परिणाम ना । अस्तित्वमय यह अर्थ है बस द्रव्यगुणपर्यायमय ।। १० ।। इस लोक में पर्याय के बिना पदार्थ और पदार्थ के बिना पर्याय नहीं होती । द्रव्य-गुण-पर्याय में रहनेवाला पदार्थ अस्तित्व से बना हुआ है। यदि धर्म को त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा से सर्वथा अलग कर दें तो धर्म तो सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्ररूप परिणमन है एवं उसके कारण ही आत्मा को धर्म कहा है। इसप्रकार यदि धर्मपर्याय को आत्मा से सर्वथा भिन्न कहेंगे तो फिर आत्मा को धर्म कहना ही संभव नहीं होगा । प्रश्न – पहले तो आपने यह कहा था कि त्रिकाली ध्रुव और पर्यायें भिन्न-भिन्न हैं एवं अभी यह कह रहे हैं,.. ? यद्यपि देह और आत्मा ये दोनों पृथक् ही हैं; तथापि हमें जितने भी जीव दिखाई देते हैं; वे सब देह में ही दिखाई देते हैं। इसीकारण संसारी जीव को देही कहा जाता है। यद्यपि सिद्ध भगवान देह रहित हैं, तथापि वे हमारे ज्ञान के प्रत्यक्ष ज्ञेय नहीं बनते । ऐसे ही पर्याय व द्रव्य भिन्न-भिन्न हैं। शरीर तो सिद्धावस्था में भिन्न हो जायेगा; पर ये पर्यायें तो सिद्धावस्था में भी रहेंगी; एक समय को भी भिन्न नहीं होगी; फिर भी हमारे ज्ञान के द्वारा आत्मद्रव्य और उनकी पर्यायों को भिन्न-भिन्न जाना जा सकता है, जाना जाता है; इसलिए उन्हें
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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