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________________ २२ प्रवचनसार का सार तरफ दस फुट गई है तो नीचे जड़ भी उसी शाखा की दिशा में लगभग उतनी ही दूर तक जाती है। यदि ऐसा न हो तो वह वृक्ष शाखाओं के बोझ से अनियन्त्रित हो जाएगा। जितनी जितनी शाखाएँ चारों तरफ फूटती हैं; उतनी-उतनी ही जड़ें नीचे की तरफ चारों तरफ फूटती हैं। जो पेड़ लम्बा - लम्बा जाएगा, उस पेड़ की जड़ें भी नीचे की ओर उतनी ही गहरी जाएगी। जड़ों के कारण वह वृक्ष न केवल स्थिर है, अपितु वह खुराक भी जड़ों से ही लेता है। जड़ों से खुराक लेकर ही वृक्ष हरा-भरा रहता है। जैसे जड़ के बिना वृक्ष की कल्पना नहीं की जा सकती है; उसीप्रकार सम्यग्दर्शन के बिना सम्यक्चारित्र की भी कल्पना नहीं की जा सकती है। जो लोग 'चारितं खलु धम्मो' का नारा लगाकर हमसे यह कहना चाहते हैं कि हममें चारित्र नहीं है; उन लोगों की दृष्टि में बाह्य क्रियाकाण्ड ही चारित्र है; लेकिन आचार्य कुन्दकुन्द चारित्र की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि जो साम्यभाव अर्थात् समताभाव है, वही चारित्र है, वही धर्म है। इस पर कई व्यक्ति कहते हैं कि हममें समताभाव तो बहुत है । हमें तो ग्राहक चार गालियाँ भी सुना जाते हैं तो भी हम ग्राहक से कुछ नहीं कहते। हम तो हाथ ही जोड़ते रहते हैं। उससे कहते हैं कि भाई ! यह समताभाव नहीं है, यह तो लोभ की तीव्रता का परिणाम है; समताभाव तो मोह व क्षोभ से रहित आत्मा के परिणाम को कहते हैं। मोह में दर्शनमोहनीय एवं क्षोभ में राग व द्वेष लेना । इसप्रकार मिथ्यात्व व राग-द्वेष से रहित जो आत्मा का परिणाम है, वह साम्यभाव है। ऐसा साम्यभाव ही चारित्र है, धर्म है। उस चारित्र में, जिसे धर्म कहा गया है; सम्यग्दर्शन शामिल है। यदि कुन्दकुन्दाचार्य मात्र 'राग-द्वेष-विहीणो परिणामो अप्पणो हु समो ।' - ऐसा लिखते तब हम कह सकते थे कि उन्होंने मात्र चारित्रमोह को लिया 8 पहला प्रवचन २३ है, दर्शनमोह को नहीं लिया; परन्तु उन्होंने तो मोहक्खोहविहीणो लिखकर मोह शब्द से मिथ्यात्व और क्षोभ शब्द से राग-द्वेष लेकर मिथ्यात्व व राग-द्वेष से रहित परिणाम को चारित्र घोषित किया है। श्रद्धा गुण का निर्मल परिणाम सम्यग्दर्शन, ज्ञान गुण का निर्मल परिणाम सम्यग्ज्ञान तथा चारित्रगुण का निर्मल परिणाम सम्यक्चारित्र - इन तीनों को आचार्यदेव साम्य कहते हैं और यही साक्षात्धर्म है। यहाँ सम्यग्दर्शन-ज्ञान- चारित्र इन तीनों के सम्मिलित रूप को ही धर्म घोषित किया है, अकेले चारित्र को नहीं । इसी भाव को आचार्य समन्तभद्र रत्नकरण्ड श्रावकाचार में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - सदृष्टिज्ञानवृत्तानि धर्मं धर्मेश्वरा विदुः । यदीयप्रत्यनीकानि भवन्ति भवपद्धतिः ।। धर्म के ईश्वर ने सदृष्टि अर्थात् सम्यग्दर्शन, सद्ज्ञान अर्थात् सम्यग्ज्ञान एवं सद्वृत्त अर्थात् सम्यक्चारित्र को धर्म कहा है। बाहर से तो मात्र चारित्र ही दिखाई देता है। एक चक्रवर्ती को क्षायिक सम्यग्दर्शन हो गया है; परन्तु बाहर से कुछ भी दिखाई नहीं देता । अंतर में उसकी श्रद्धा, उसका अपनत्व परपदार्थों से हटकर त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा में हो गया है। ऐसा होने पर भी वर्तमान में उन्होंने राज-पाट नहीं छोड़ा है, ९६००० पत्नियों में से एक को भी नहीं छोड़ा है । वे दिग्विजय करने के लिए जा रहे हैं। यह सब देखकर लोक कैसे समझें कि वे धर्मात्मा हैं। यदि आचार्य मात्र श्रद्धा को ही धर्म घोषित करते तो फिर विषय - कषाय में लिप्त लोगों को भी धर्मात्मा समझ लिया जाता । जादू तो वह है जो सिर पर चढ़कर बोले। चारित्र एक ऐसी चीज है जो संपूर्ण जगत को दिखाई देती है। मैं सम्यग्दृष्टि हूँ या नहीं हूँ - लोगों को इसकी घोषणा करने की जरूरत पड़ती होगी; परन्तु किसी ने नग्नदिगम्बर दीक्षा ले ली तो उन्हें यह कहने की जरूरत नहीं है कि मैं
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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