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________________ ४१२ प्रवचनसार अनुशीलन शुद्धनय कहलाता है और इसीकारण उपादेय भी कहा जाता है। आचार्य जयसेन के उक्त कथन में समागत ‘परम्परा से शुद्धात्मा का साधक और अशुद्धनय भी उपचार से शुद्धनय कहलाता है और इसीकारण उपादेय हैं' - ये वाक्य ध्यान देने योग्य हैं; क्योंकि इनमें अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में यह कहा गया है कि आत्मा को रागादि का कर्ता कहनेवाला नय मूलत: तो अशुद्धनिश्चयनय ही है; पर उसे यहाँ प्रयोजनवश उपचार से शुद्धनिश्चयनय कह दिया गया है। इसीप्रकार यहाँ इसे परम्परा से ही शुद्धात्मा का साधक कहा गया है; साक्षात् साधक नहीं कहा। यहाँ ‘आत्मा रागादिरूप है, रागादि का स्वामी है और रागादि का कर्ता-भोक्ता हैं' - यह शुद्धनिश्चयनय का कथन है। यह कहकर यह कहना चाहते हैं कि आत्मा स्वयं रागादिरूप परिणमता है, रागादि के स्वामीपने परिणमता है और रागादि के कर्तृत्व-भोक्तृत्वरूप परिणमता है। यह सब आत्मा की पर्यायगत योग्यता के कारण स्वयं से ही होता है; पर के कारण नहीं, कर्मादि के कारण भी नहीं। यदि इसमें पर की कारणता स्वीकार की जायेगी तो फिर अत्मा इनका कर्ता-भोक्ता भी नहीं रहेगा; क्योंकि स्वतंत्र: कर्ता - कर्ता कहते ही उसे हैं; जो अपने परिणमन में स्वतंत्र हो। पर से निरपेक्षता ही इसकी शुद्धता है, स्वतंत्रता है। यही बताने के लिए इसे शुद्धनिश्चयनय का कथन कहा गया है। जिस द्रव्य की जो परिणति हो, उस परिणति को उसी द्रव्य की कहना शुद्धनिश्चयनय है और उस परिणति को अन्य द्रव्य की कहना अशुद्धनिश्चयनय अर्थात् व्यवहारनय है। उक्त परिभाषा के अनुसार रागादिभाव जीवद्रव्य की परिणति है; अतः उसे जीव की परिणति कहना ही सत्य है, इसकारण यह निश्चयनय है और पर से भिन्नता और अपने से अभिन्नता ही शुद्धता है; इसकारण यह कथन शुद्धनय है; इसप्रकार रागादि का स्वामी, कर्ता-भोक्ता आत्मा को कहना शुद्धनिश्चयनय का कथन है। प्रवचनसार गाथा १९०-१९१ विगत गाथा में निश्चय और व्यवहार में अविरोध दिखाने के उपरान्त अब इन गाथाओं में अशुद्धनय से अशुद्धात्मा और शुद्धनय से शुद्धात्मा की प्राप्ति होती है - यह बताते हैं। गाथायें मूलत: इसप्रकार हैंण च यदि जो दुममत्तिं अहं ममेदं ति देहदविणेसु । सो सामण्णं चत्ता पडिवण्णो होदि उम्मग्गं ॥१९०।। णाहं होमि परेसिं ण मे परे संति णाणमहमेक्को । इदि जो झायदि झाणे सो अप्पाणं हवदि झादा ।।१९१ ।। (हरिगीत) तन-धनादि में 'मैं हूँ यह' अथवा 'ये मेरे हैं सही। ममता न छोड़े वह श्रमण उनमार्गी जिनवर कहें ।।१९०।। पर का नहीं ना मेरे पर मैं एक ही ज्ञानात्मा । जो ध्यान में इस भाँति ध्यावे है वही शुद्धात्मा ।।१९१।। जो देह-धनादिक में 'मैं यह हूँ और यह मेरा हैं' - ऐसे ममत्व को नहीं छोड़ता; वह श्रामण्य को छोड़कर उन्मार्ग का आश्रय लेता है। ____ 'मैं पर का नहीं हूँ और पर मेरे नहीं हैं; मैं तो एक ज्ञान हूँ, ज्ञानस्वरूप हूँ - इसप्रकार जो ध्यान करता है; वह ध्याता ध्यानकाल में आत्मा होता है। आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इन गाथाओं के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “शुद्धद्रव्यनिरूपणात्मक निश्चयनय से निरपेक्ष रहकर अशुद्धद्रव्यनिरूपणात्मक व्यवहारनय में मोहित जो आत्मा मैं यह हूँ और यह मेरा हैं' - इसप्रकार आत्मीयता से देह और धनादिक परद्रव्यों में ममत्व नहीं छोड़ता; वह आत्मा शुद्धात्मपरिणतिरूप श्रामण्य नामक मार्ग को दूर से ही छोड़कर अशुद्धात्मपरिणतिरूप उन्मार्ग का ही आश्रय लेता है।
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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