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________________ ४१० प्रवचनसार अनुशीलन आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "विकार के समय कर्म निमित्त है ऐसा ज्ञान करना व्यवहारनय है। पुद्गल परिणाम आत्मा का कर्म है - इसका अर्थ ऐसा नहीं है कि आत्मा के राग-द्वेष जड़कर्म की अवस्था को कर सकते हैं; किन्तु जब जीव राग-द्वेष करता है, तब कर्म अवश्य बंधते हैं; इसलिए व्यवहार से आत्मा को जड़कर्म का कर्ता कहा है।" विकार स्वयं की पर्याय का अपराध है, यह अनारोपित कथन है। तथा कर्म के निमित्त से राग होता है, यह आरोपित कथन है - इसका भी ज्ञान करना चाहिए। इसप्रकार विकारी पर्याय को जाननेवाला निश्चयनय अविकारी स्वभाव का स्वतंत्र कथन करने हेतु उत्कृष्ट साधन है - ऐसा यथार्थज्ञान करके शुद्धस्वभाव की तरफ बढ़ना ही कार्यकारी है। राग परिणाम तथा वीतराग परिणाम आत्मा स्वतंत्रपने करता है। तथा शुभ-अशुभ परिणाम करने वाला भी आत्मा स्वयं ही है। जड़ के कारण अथवा पर-पदार्थों के कारण विकार नहीं होता। निगोद में भी जीव स्वयं के अज्ञान के कारण रहता है; तीव्र कर्म के कारण नहीं । ग्यारहवें गुणस्थान से गिरकर जीव नीचे के गुणस्थान में आता है, वह भी स्वयं के पुरुषार्थ की मंदता से आता है, कर्म के उदय के कारण नहीं। इससे सिद्ध होता है कि जीव विकारी परिणाम स्वतंत्रतया करता है। पर्याय को पराधीन माननेवाले जीव को द्रव्यसामान्य का सच्चा ज्ञान नहीं होता । अहो ! जो जीव स्वयं की पर्याय पर के कारण मानता है, वह पर से हटकर स्वतरफ कैसे बढ़ेगा? विकारी पर्याय, अविकारी अधूरी पर्याय, मोक्षमार्ग तथा मोक्ष- ये सभी विशेष हैं - अंश हैं। अंश को पराधीन मानने वाला अंशी को स्वतंत्र नहीं मान सकता। जिसे १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ ३७४ ३. वही, पृष्ठ-३७६ २. वही, पृष्ठ-३७४-३७५ ४. वही, पृष्ठ-३७६-३७७ गाथा - १८९ ४११ विशेष का सच्चा ज्ञान नहीं, वह सामान्य वस्तुस्वभाव का ज्ञान नहीं कर सकता। पर्याय को स्वतंत्र माननेवाला ही पर्यायवान की तरफ दृष्टि करता है; इसलिए निश्चयनय को उपादेय कहा है। निश्चयनय विशेष का स्वतंत्र ज्ञान कराता है। निश्चयनय शुद्धत्व का प्रकाशक है और व्यवहारनय अशुद्धत्व का प्रकाशक है। पर्याय अंश को स्वतंत्र स्वीकार करनेवाले की दृष्टि द्रव्य की ओर ढलती है; इसलिए पर्याय को स्वतंत्र बतानेवाला निश्चयनय उत्कृष्ट साधक होने से उपादेय कहा है। शुद्ध आत्मा साध्य है और निश्चयनय उसका साधक है। इसप्रकार विकार स्वतंत्रपने होता है ऐसा ज्ञान कराने वाला नय शुद्धनय की तरफ दौड़ जाता है, इसलिए उसे द्रव्य के शुद्धत्व का प्रकाशक कहा है। निश्चयनय ही साधकतम है। संयोग और कर्म का ज्ञान करानेवाला व्यवहारनय अशुद्धत्व का द्योतक है। वह पर की ओर लक्ष्य कराता है और परलक्ष्य से विकार होता है, इसलिए व्यवहारनय साधकतम नहीं है। इसप्रकार व्यवहारनय को हेय समझकर निश्चयनय का यथार्थ ज्ञान करके द्रव्य सामान्य की ओर बढ़कर सच्चा श्रद्धान- ज्ञान करना ही निश्चयनय को जानने का फल है। ३” एक बात विशेष ध्यान देने योग्य यह है कि यहाँ शुद्धता का अर्थ परद्रव्यों से भिन्नता और अशुद्धता का अर्थ परद्रव्यों से अभिन्नता है। यही कारण है कि यहाँ आत्मा को रागादि भावों का कर्ता शुद्धनिश्चयनय से कहा गया है; जबकि अन्यत्र लगभग सर्वत्र ही आत्मा को रागादि का कर्ता अशुद्ध-निश्चयनय से कहा जाता रहा है। आचार्य जयसेन का ध्यान भी इस ओर गया था। यही कारण है कि उन्होंने यह कहकर समाधान करने का सफल प्रयास किया है कि परम्परा से शुद्धात्मा का साधक होने से यह अशुद्धनय भी उपचार से १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-३७९ २. वही, पृष्ठ-३८० ३. वही, पृष्ठ-३८१
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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