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________________ प्रवचनसार अनुशीलन इससे निश्चित होता है कि अशुद्धनय से अशुद्धात्मा की ही प्राप्ति होती है। मात्र अपने विषय में प्रवर्तमान अशुद्धद्रव्यनिरूपणात्मक व्यवहारनय में अविरोधरूप से मध्यस्थ रहकर शुद्धद्रव्यनिरूपणात्मक निश्चयनय के द्वारा मोह दूर किया है जिसने, ऐसा वह आत्मा 'मैं पर का नहीं हूँ, पर मेरे नहीं हैं' - इसप्रकार स्व-पर के परस्पर स्व-स्वामी संबंध को छोड़कर 'मैं एक शुद्ध ज्ञान ही हूँ' - इसप्रकार अनात्मा को छोड़कर आत्मा को ही आत्मरूप से ग्रहण करके परद्रव्य से भिन्नत्व के कारण एक आत्मा में ही चिन्तवन को रोकता है; वह एकाग्रचिन्तानिरोधक आत्मा उस एकाग्रचित्तानिरोध के समय वास्तव में शुद्धात्मा होता है। इससे निश्चित होता है कि शुद्धनय से ही शुद्धात्मा की प्राप्ति होती है। " ४१४ आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में इन गाथाओं के भाव को समझाते हुए आचार्य अमृतचन्द्रकृत तत्त्वप्रदीपिका टीका का शतप्रतिशत अनुकरण करते हैं। कविवर वृन्दावनदासजी इन गाथाओं के भाव को एक-एक मनहरण और एक-एक दोहा - इसप्रकार चार छन्दों में प्रस्तुत करते हैं; जिनमें दोनों मनहरण छन्द इसप्रकार हैं ( मनहरण ) जाकी मति मैली ऐसी फैली जो शरीर पर, दर्व ही को कहै की हमारो यही रूप है । तथा यह मेरो ऐसो चेरो भयो मोह ही को, छोड़ै न ममत्वबुद्धि धरै दौरधूप है ।। सो तो साम्यरसरूप शुद्ध मुनिपद ताको, त्यागि के कुमारग में चलत कुरूप है। ताको ज्ञानानंदकंद शुद्ध निरद्वंद सुख, मिलै न कदापि वह परै भवकूप है ।। १०५ ।। गाथा - १९०-१९९ ४१५ जिस जीव की मलिन मति शरीररूपी परद्रव्य पर इसप्रकार पसर गई है कि वह कहता है कि यह शरीर हमारा ही रूप है। यह मोह का ऐसा दास हो गया है कि शरीरादि से अपनापन छोड़ता ही नहीं है और निरन्तर उसी की सेवा में दौड़-धूप करता रहता है ऐसी मान्यता और परिणतिवाले जीव साम्यरसरूप शुद्ध मुनिपद को छोड़कर कुमार्ग में चल पड़ते हैं। ऐसे जीवों को ज्ञानानन्दकन्द शुद्धात्मा के आश्रय से उत्पन्न निर्द्वन्द सुख कभी नहीं मिलता और वे संसाररूपी कुऐ में ही पड़े रहते हैं। ( मनहरण ) मैं जो शुद्ध बुद्ध चिनमूरत दरव सो तौ, परदर्शनि को न भयो हों काहू काल में। देहादिक परदर्व मेरे ये कदापि नाहिं, ये तौ निजसत्ता ही में रहैं सब हाल मैं तो एक ज्ञानपिंड अखंड परमजोत, निर्विकल्प चिदाकार चिदानंद चाल में । ऐसे ध्यानमाहिं जो सुध्यावत स्वरूप वृन्द, सोई होत आतमा को ध्याता वर भाल में ।। १०७॥ मैं जो शुद्ध - बुद्ध चैतन्यमूर्ति द्रव्य हूँ; वह तो कभी भी किसी भी काल में परद्रव्यों का नहीं हुआ है और न ये देहादिक परद्रव्य कभी मेरे हुए हैं; ये तो सभी स्थितियों में निजसत्ता में ही रहे हैं। मैं तो एक ज्ञान का पिण्ड, अखण्ड, परमज्योतिस्वरूप, निर्विकल्प, चिदाकार चिदानंद चाल में रहनेवाला चेतन द्रव्य हूँ - इसप्रकार जो व्यक्ति स्वरूप का ध्यान करते हैं; वृन्दावन कवि कहते हैं कि वे आत्मा के ध्याता होते हैं। पण्डित देवीदासजी इन गाथाओं के भाव को दो पद्यों में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - में || ( चौपाई ) सरीरादि पररूप सु मेरो, मैं पर सरीरादि तिनि कैरौ । यह ममकार बुद्धि तसु हो है मुनि नांहीं कुमारगी सो है ।। १५२ ।।
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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