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________________ १७२ प्रवचनसार ही है। ऐसा धर्म धर्मात्मा में ही पाया जाता है, धर्मात्माओं को छोड़कर धर्म कहाँ रहेगा ? कहा भी है - "न धर्मो धार्मिकैर्बिना' धर्म धर्मात्माओं के बिना नहीं होता ।" धर्मपरिणत आत्मा ही धर्म है, धर्मात्मा है । यदि मूर्तिमन्त धर्म के दर्शन करना है तो मुनिराजों के दर्शन कर लीजिए। वे चलते-फिरते धर्म हैं । मैंने देव-शास्त्र-गुरु पूजन में वीतरागी सन्तों को चलते-फिरते सिद्धों के रूप में देखा है और लिखा है कि - चलते-फिरते सिद्धों से गुरु चरणों में शीश झुकाते हैं। हम चले आपके कदमों पर बस यही भावना भाते हैं ।। मन्द्राक्रांता ) आत्मा धर्मः स्वयमिति भवन् प्राप्य शुद्धोपयोगं नित्यानन्दप्रसरसरसे ज्ञानतत्त्वे निलीय । प्राप्स्यत्युच्चैरविचलतया निष्प्रकम्पप्रकाशां स्फूर्जज्योति: सहजविलसद्रत्नदीपस्य लक्ष्मीम् ॥५॥ जरा सोचो तो सही कि जिन मुनिराजों को यहाँ साक्षात् धर्म कहा है; वे मुनिराज कैसे होंगे? जगतप्रपंच में उलझे, दंद- फंद में पड़े, विकथाओं में रत, परमवीतरागता से विरत, वेषधारी लोग मात्र वेष के होने से साक्षात् धर्म तो हो नहीं सकते । अतः शुद्धोपयोग और शुद्धपरिणति से परिणत मुनिराज ही धर्म हैं। ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार की सम्पूर्ण विषयवस्तु समेटते हुए आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं कि अधिक विस्तार से क्या लाभ है ? समझदारों के लिए तो जितना कह दिया, उतना ही पर्याप्त है । वे तो इतने में ही सबकुछ समझ जावेंगे । जो इतने से नहीं समझेंगे, उन्हें तो कितना ही कहो, कुछ होनेवाला नहीं है । सर्वान्त में जिनवाणी और उससे प्राप्त होनेवाली आत्मोपलब्धि तथा शुद्धोपयोग की जयकार करते हुए आचार्यदेव कहते हैं कि इनके प्रसाद से ही आत्मोपलब्धि होती है और आत्मा धर्मात्मा हो जाता है, धर्म हो जाता है। इसलिए हम सबका यही एकमात्र कर्तव्य है कि हम सब आगम का अभ्यास करें; जिससे हम सबको भी आत्मोपलब्धि और शुद्धोपयोग प्राप्त हो और हम भी धर्ममय हो जावें, धर्मात्मा हो जावें ॥ ९२ ॥ आचार्य अमृतचन्द्र कृत तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसके बाद दो मन्दाक्रान्ता छन्द प्राप्त होते
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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