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________________ ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन : शुभपरिणामाधिकार १७१ उक्त उत्थानिका में 'ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार' की सम्पूर्ण विषयवस्तु को संक्षेप में प्रस्तुत करके अन्त में यह कहा गया है कि धर्मपरिणत संत ही धर्म हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत ) आगमकुशल दृगमोहहत आरूढ़ हों चारित्र में। बस उन महात्मन श्रमण को ही धर्म कहते शास्त्र में ।।९२।। जो आगम में कुशल हैं, जिनकी मोहदृष्टि नष्ट हो गई है और जोवीतरागचारित्र में आरूढ़ हैं: उन महात्मा श्रमण कोही धर्म कहा है। यो निहतमोहदृष्टिरागमकुशलो विरागचरिते। _अभ्युत्थितो महात्मा धर्म इति विशेषित: श्रमणः ।।१२।। यदयं स्वयमात्माधर्मोभवति सखल मनोरथ एव । तस्य त्वेका बहिर्मोहदष्टिरेव विहन्त्री। सा चागमकौशलेनात्मज्ञानेन च निहता, नात्र मम पुनर्भावमापत्स्यते । ततोवीतरागचारित्रसूत्रितावतारोममायमात्मा स्वयं धर्मो भूत्वा निरस्तसमस्तप्रत्यूहतया नित्यमेव निष्कम्प एवावतिष्ठते। अलमतिविस्तरेण । स्वस्ति स्याद्वादमुद्रिताय जैनेन्द्राय शब्दब्रह्मणे । स्वस्ति तन्मूलायात्मतत्त्वोपलम्भाय च, यत्प्रसादादुद्ग्रन्थितो झगित्येवासंसारबद्धोमोहग्रन्थिः । स्वस्ति च परमवीतरागचारित्रात्मने शुद्धोपयोगाय, यत्प्रसादादयमात्मा स्वयमेव धर्मो भूतः ।।१२।। इस गाथा के भाव को आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं "हमारामनोरथ यह है कि यह आत्मास्वयं ही धर्म हो। उसमें विघ्न डालनेवालीएकमात्र बहिर्मोहदृष्टि ही है और वह बहिर्मोहदृष्टि आगमकौशल्य तथा आत्मज्ञान से नष्ट हो जाने के कारण अब मुझ में पुन: उत्पन्न नहीं होगी। इसलिए वीतरागचारित्ररूप पर्याय में परिणत मेरा यह आत्मा स्वयं धर्म होकर, समस्त विघ्नों का नाश हो जाने से सदा निष्कंप ही रहता है। ___ अधिक विस्तार से बस होओ। जयवंत वर्तो, स्याद्वादमुद्रित जैनेन्द्र शब्दब्रह्म; जयवंत वर्तो शब्दब्रह्ममूलक आत्मतत्त्वोपलब्धि; जिसके प्रसाद से अनादि संसार से बंधी हुई मोहग्रंथि तत्काल छूट गई है और जयवंत वर्तो परमवीतरागचारित्ररूपशुद्धोपयोग; जिसके प्रसाद से यह आत्मा स्वयमेव धर्म हुआ है।" देखो, इस गाथा में आगमकुशल सम्यग्दृष्टि वीतरागचारित्रवंत भावलिंगी संतों को ही धर्म कहा है। तात्पर्य यह है कि धर्म तो भावात्मक वस्तु है, श्रद्धादि गुणों का सम्यक् परिणमन १. आचार्य समन्तभद्र : रत्नकरण्डश्रावकाचार, श्लोक २६
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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