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________________ ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन : शुभपरिणामाधिकार १७३ हैं। प्रथम छन्द में शुद्धोपयोगका फल निरूपित है और दूसरा छन्दज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार और ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार के बीच की संधि को बताता है। प्रथम छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है - (मनहरण ) विलीन मोह-सम-द्वेष मेघ चहं ओर के, चेतना के गुणगण कहाँ तक बखानिये। अविचल जोत निष्कंप रत्नदीप सम, विलसत सहजानन्द मय जानिये ।। (मन्द्राक्रांता) निश्चित्यात्मन्यधिकृतमिति ज्ञानतत्त्वं यथावत् तत्सिद्ध्यर्थं प्रशमविषयं ज्ञेयतत्त्वं बुभुत्सुः। सर्वानर्थान् कलयति गुणद्रव्यपर्याययुक्त्या प्रादुर्भूतिर्न भवति यथा जातु मोहांकुरस्य ।।६।। नित्य आनंद के प्रशमरस में मगन, शुद्ध उपयोग का महत्त्व पहिचानिये । नित्य ज्ञानतत्त्व में विलीन यह आतमा, स्वयं धर्मरूप परिणत पहिचानिये ||५|| इसप्रकार शुद्धोपयोग को प्राप्त करके यह आत्मा स्वयं धर्मरूप परिणमित होता हआ नित्यानंद के प्रसार से सरस आत्मतत्त्व में लीन होकर, अत्यन्त अविचलता के कारण दैदीप्यमान ज्योतिर्मय और सहजरूप से विलसित स्वभाव से प्रकाशित रत्नदीपक की भाँति निष्कंप प्रकाशमय शोभाको प्राप्त करता है। घी या तेल से जलनेवाले दीपक की लों वायु के संचरण से कांपती रहती है और यदि वायु थोड़ी-बहुत भी तेज चले तो बुझ जाती है; परन्तु रत्नदीपक में न तो घी या तेल की जरूरत है और न वह वायु के प्रचंड वेग से काँपता ही है। जब वह कांपता भी नहीं तो फिर बुझने का प्रश्न नहीं उठता। यही कारण है कि यहाँ ज्ञानानन्दज्योति की उपमा रत्नदीपक से दी गई है। क्षायोपशमिक ज्ञान और आनन्द तेल के दीपक के समान अस्थिर रहते हैं, अनित्य होते हैं और क्षणभंगुर होते हैं; किन्तु क्षायिकज्ञान और क्षायिक आनन्द रत्नदीपक के समान अकंप चिरस्थाई होते हैं।
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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