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________________ ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन : शुभपरिणामाधिकार १४५ मात्र जानना है; जानने के अलावा कुछ नहीं करना है; क्योंकि वे तो हमारे मात्र ज्ञेय हैं और कुछ नहीं। ध्यान रहे, यहाँ यह नहीं लिखा है कि उन्हें जानना भी नहीं है; क्योंकि वे पर हैं। यहाँ तो उन्हें जानने की बात डंके की चोट पर लिखी है और उन्हें जानने का फल आत्मा को जानना बताया है। आत्मा के जानने पर मोह का नाश होता है; इसप्रकार प्रकारान्तर से अरहंत के जानने को मोह के नाश का उपाय बताया गया है। आत्मा का कार्य मात्र जानना है, स्व-पर को जानना है; इसलिए मात्र जानो, जानो, जानो और जानो; पर को जानो, स्व को जानो, स्व-पर को जानो; पर से भिन्न स्व को जानो, जानो और जानते रहो। अपने को अपना मानकर जानते रहो, लगातार जानते रहो और कुछ भी नहीं करना है। इसी से सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र सभी हो जावेंगे और न केवल दर्शनमोह अपितु चारित्रमोह का भी नाश हो जायेगा। तुम स्वयं पर्याय में भी भगवान बन जावोगे। स्वभाव से तो भगवान हो ही; पर्याय में बनना है सो इसीप्रकार स्व को जानते रहने से पर्याय में भी भगवान बन जावोगे, सर्वज्ञ-वीतरागी हो जावोगे। ___ इसप्रकार यह सुनिश्चित हुआ कि मोह के नाश का उपाय एकमात्र निजभगवान आत्मा को जानना है और अधिक आगे जायें तो इसमें द्रव्य-गण-पर्याय से परमात्मा के स्वरूप को जानना भी शामिल कर सकते हैं। इसके आगे बढ़ना तो उपचार में उपचार होगा। प्रश्न - आत्मा और परमात्मा (अरहत) की पर्याय में कोई अन्तर नहीं है - यह बात गले नहीं उतरती: क्योंकि कहाँ हम रागी-द्वेषी अल्पज्ञ और कहाँ वे वीतरागी सर्वज्ञ ? उत्तर – हमारी और उनकी पर्याय में जो अन्तर है, वह तो आपको स्पष्ट दिखाई दे ही रहा है और उक्त अन्तर को समाप्त करने के लिए ही अपना यह सब पुरुषार्थ है। अब रही बात अन्तर नहीं होने की सो यहाँ जो द्रव्य-गुण-पर्याय का स्वरूप बताया है; उसमें यह बात स्पष्ट की है कि अन्वय सो द्रव्य, अन्वय का विशेषण गुण और अन्वय का व्यतिरेक पर्याय है। __ है, है और है; निरन्तर होते-रहने का नाम अन्वय है। सत्तास्वरूप वस्तु निरन्तर ही विद्यमान रहती है; भगवान आत्मा भी सत्तास्वरूप वस्तु है और वह भी अन्वयरूप से निरन्तर रहता है; इसीकारण द्रव्य है। अन्वयरूप से विद्यमान वस्तु की अन्वयरूप से रहनेवाली विशेषताएँ ही गुण हैं। भगवान
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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