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________________ १४४ प्रवचनसार ___ इसीप्रकार पूजा-पाठ, व्रत-उपवास, तीर्थयात्रा आदि क्रियाकाण्ड से भी न तो आत्मा का जानना होता है और न मोह का नाश ही होता है। प्रश्न – मोह के नाश के लिए आत्मा के समान ही परमात्मा को जानना है कि दोनों के जानने में कुछ अन्तर है? उत्तर - अन्तर है; क्योंकि परमात्मा को तो मात्र जानना ही है, जानते ही नहीं रहना है, उन्हीं में लीन नहीं हो जाना है; किन्तु आत्मा को जानकर उसे जानते ही रहना है, उसी में जम जाना है, रम जाना है। परमात्मा का जानना तो एक सीढ़ी मात्र है, गन्तव्य नहीं; पर आत्मा को मात्र जानना ही नहीं है, निजरूपजानना है, उसी में अपनापन स्थापित करना है, उसी में समा जाना है। __परमात्मा के ध्यान से तो पुण्य का बंध होता है; पर आत्मा के ध्यान से कर्म कटते हैं; मिथ्यात्व का नाश होता है। मूलत: तो आत्मा को ही जानना है और परमात्मा को आत्मा को जानने के लिए जानना है। आत्मा निजरूप है और वह निजरूप से ही जाना जाता है तथा परमात्मा पररूप है और पररूप से ही जाना जाता है। इसप्रकार इन दोनों के जानने में बहुत बड़ा अंतर है। प्रश्न - कोरे जानने से काम हो जायेगा, करना कुछ भी नहीं है । यदि कुछ भी नहीं करना है तो काम होगा कैसे ? उत्तर - अरे भाई ! जानना भी तो एक काम है, और आत्मा का तो एकमात्र काम जानना ही है; क्योंकि यह आत्मा पर में तो कुछ कर ही नहीं सकता; अपने स्वपरप्रकाशक स्वभाव के कारण यह आत्मा पर को तो मात्र जान ही सकता है। जानना एक काम नहीं, अपितु आत्मा का काम तो एकमात्र जानना ही है। एक बात और भी ध्यान देने योग्य है कि यहाँ आत्मा और परमात्मा - दोनों को जानने की बात कहकर यह भी कह दिया है कि आत्मा स्व और पर दोनों को जान लेता है; क्योंकि आत्मा स्व है और परमात्मा पर हैं। इसतरह यह भी प्रतिफलित होता है कि मिथ्यात्व के नाश के लिए स्व (आत्मा) और पर (परमात्मा) दोनों को जानना अनिवार्य है। पर के जानने को निरर्थक बतानेवाले लोगों को उक्त तथ्य पर भी ध्यान देना चाहिए। मोह के नाश के लिए, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की प्राप्ति के लिए परमात्मा (अरहंत) को
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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