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________________ १४६ आत्मा के ज्ञान, दर्शन आदि गुण आत्मा में निरन्तर ही रहते हैं । विगत पर्याय में वर्तमान पर्याय का नहीं होना ही अन्वय का व्यतिरेक है । द्रव्य और गुणों के समान अन्वयों के व्यतिरेक भी अरहंत के समान अपने आत्मा में सदा रहते हैं । प्रवचनसार जिसप्रकार अरहंत भगवान की पर्याय प्रतिसमय पलटती है; उसीप्रकार हमारी पर्याय भी प्रतिसमय पलटती है। पर्याय का स्वभाव ही पलटना है। वस्तुतः पलटने का नाम ही पर्याय है; जो आत्मा और परमात्मा में समान ही है । प्रश्न - यदि आप कहते हो तो हम अरहंत भगवान को द्रव्य-गुण- पर्यायरूप से समझ लेंगे और अपने आत्मा को भी उसीप्रकार समझ लेंगे; पर इससे मोह का नाश कैसे हो जायेगा ? मात्र समझने से मोह का नाश हो जायेगा, कुछ करना नहीं पड़ेगा ? उत्तर - दृष्टि के विषयभूत अपने त्रिकाली ध्रुव आत्मा को सही रूप में समझ लेने पर यह भी समझ में आ जायेगा कि यह त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा मैं ही हूँ, कोई अन्य नहीं । यह स्पष्ट जाने पर अबतक जिन देहादि परपदार्थों में और रागादि विकारी भावों में अपनापना था, वह नियम से टूट जायेगा । पर और विकार में अपनेपन का नाम ही मोह है, मिथ्यात्व है और अपने त्रिकाली ध्रुव आत्मा में अपनेपन का नाम ही मोह का नाश है, सम्यग्दर्शन है । अतः यह स्पष्ट ही है कि पर और विकार से अपनापन टूटते ही तथा अपने ज्ञानानंदस्वभावी आत्मा में अपनत्व आते ही मोह का नाश होना, मिथ्यात्व का नाश होना, सम्यग्दर्शन का प्राप्त होना अनिवार्य ही है। एकप्रकार से पर में से अपनत्व टूटना और मोह का नाश होना एक ही बात है। इसीप्रकार अपने में अपनापन होना और सम्यग्दर्शन होना भी एक ही बात है । वस्तुतः बात यह है कि पर से अपनत्व टूटने और मोह (मिथ्यात्व) के नाश होने का एक काल है। उक्त दोनों कार्य एकसमय में ही होते हैं। जब मिथ्यात्वरूप दर्शनमोहनीय कर्म का उदय होता है तो आत्मा में पर में अपनत्वरूप मिथ्याभाव होते हैं और जब पर में अपनत्वरूप मिथ्याभाव होते हैं तो उनके निमित्त से मिथ्यात्वादि द्रव्यकर्मों का बंध होता है। यह दुष्चक्र ही मोह की प्रबल ग्रंथि (गाँठ) है; जो अरहंत भगवान को द्रव्य-गुण- पर्याय से जानकर उसीप्रकार अपने आत्मा को जानने से शिथिल होती है, पर से भिन्न अपने आत्मा में अपनापन स्थापित होकर अपने आत्मा में ही
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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