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________________ १० नींव का पत्थर सबै दिन जात न एक समान कर्मकिशोर ने कहा - "शुभाशुभ भावों के अनुसार दण्ड विधान करने से जानने न जानने का कोई सम्बन्ध नहीं है। जानने को तो सर्वज्ञ भगवान भी सबकुछ जानते हैं; परन्तु वे किसी को दण्डित व पुरस्कृत नहीं करते; क्योंकि वे वीतरागी हैं न! हमें भी कौनसा राग-द्वेष है, जो हम किसी का भला बुरा करें। अतः तुम्हारे शुभाशुभ परिणामों के अनुसार हम और तुम स्वतः लोह-चुम्बक की भाँति परस्पर बंध जाते हैं और हमारे उदय में अनुकूल-प्रतिकूल संयोग स्वतः ऑटोमेटिक-बिना किसी के मिलाये ही मिलते-बिछुड़ते रहते हैं।" “वस्तुतः बात यह है कि तुम सब स्वयं अपने ज्ञाता-दृष्टा स्वभाव और अपने कार्य की सीमाओं को भूलकर दुःखों के बीज बोते हो और अपने पैरों पर स्वयं कुल्हाड़ी मारते हो। यदि तुम चाहो तो अपनी अनंतशक्तियों को पहचान कर, अपने स्वभाव की सामर्थ्य को जानकर हमारे बन्धन से मुक्त होकर सदा के लिए सुखी हो सकते हो। हम किसी को बिना कारण बलात् बन्धन में नहीं डालते । हमारा किसी से कोई वैरविरोध है ही नहीं।" कर्मकिशोर ने अपनी पीड़ा को व्यक्त करते हुए आगे कहा - "यद्यपि हमें दुष्ट कहकर कोसा जाता है। भोले भक्तों द्वारा भगवान से प्रार्थना की जाती है कि 'हे प्रभो! इन दुष्टकर्मों को निकाल दो और हमारी रक्षा करो' । हम पर यह मिथ्या आरोप लगाया जाता है कि 'हम जीवों को परेशान करते हैं।' हमारे विरुद्ध भजन बना-बनाकर ऐसा प्रचार किया जाताहै कि कर्म बड़े बलवान जगत में पेरत हैं एक भक्त ने तो यहाँ तक कह डाला - मैं हूँ एक अनाथ, ये मिल दुष्ट घनेरे। किये बहुत बेहाल सुनिये साहिब मेरे।। जबकि वस्तुस्थिति इससे बिल्कुल भिन्न है। हमारा १४८ सदस्यों का बड़ा परिवार है, जो बिल्कुल निर्दोष है। जब जीव अपने में शुभाशुभ भाव करते हैं तो हम सहज ही जीवों की ओर खिंचे चले जाते हैं, इसमें हमारा क्या दोष है? फिर भी जीव हमें ही दोषी ठहराता है।" ____ जीवराज के पहले पूर्वभव में किए सत्कर्मों के फलस्वरूप कर्मकिशोर ने उसकी रुचि के अनुकूल सभी लौकिक सुख-सामग्री जुटाने में कोई कमी नहीं रखी। उसे किसी से राग-द्वेष तो है नही । जीवराज ने पूर्व में सत्कर्म किये थे तो उनका फल तो उसे मिलना ही था, सो मिला है। कर्म तो मात्र निमित्त बनते हैं। इस कारण भी जीवराज को अपनी मनोकामनायें पूर्ण करने में कभी/कोई बाधा नहीं हुई। यद्यपि ये विषय भोगों की सब सुख सुविधायें भी पूर्वकृत सत्कर्मों के फलस्वरूप ही मिलती हैं, परन्तु उन प्राप्त भोगों में उलझ जाने से व्यक्ति का भविष्य अंधकारमय भी हो जाता है। कर्मकिशोर ने कहा - "जीवराज यह विवेक तुमको नहीं था। इस कारण तुम विषयान्ध हो गये। पूर्व पुण्योदय से तुम्हारी समस्त भोग सामग्री और मनोनुकूल हमारी बहिन 'मोहनी' भी मिल तो गई; परन्तु उसमें उलझने से तुम्हारी जो दुर्दशा हुई, वह किसी से छिपी नहीं रही। तुम मोहनी के मोहजाल में फंस कर सातों व्यसनों में पारंगत हो गए। इसतरह तुम्हारी ही भूल से तुम्हारा सौभाग्य दुर्भाग्य में बदल गया। समता जैसी सर्वगुण सम्पन्न पत्नी के होते हुए भी तुम व्यसनों और विषय-कषायों के जाल में ऐसे फंसे कि निज घर की सुध-बुध ही भूल गए। दिन-रात नृत्य-गान देखना-सुनना, सुरापान करना आदि तुम्हारी दिनचर्या के अभिन्न अंग बन गये। 'मोहनी' भी तुमसे इतनी आकर्षित हो गई कि उसने अपने पीढ़ी-दर-पीढ़ी चले आये दूसरों को सम्मोहित करने के धन्धे को तिलांजलि देकर अकेले तुमसे ही नाता जोड़ लिया। मोहनी के संसर्ग से तुम्हारी ममता, माया, अनुराग, हास्य, रति आदि अनेक अवैध संतानें हो गईं। वे सभी संतानें मोहनी जैसी माँ के कुसंस्कारों के कारण कुपथगामी होकर तुम्हारे गले का फन्दा बन गईं।" जिस तरह पुण्योदय से प्राप्त मिष्ठान्न खाते-खाते पापोदय आ जाने से जीभ दांतों के नीचे आ जाती है, उसी तरह जीवराज के पूर्व पुण्योदय से प्राप्त भोगों को भोगते-भोगते पाप का ऐसा उदय आया कि उसकी दुनियाँ (6)
SR No.008361
Book TitleNeev ka Patthar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages65
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size233 KB
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