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________________ चैतन्य चमत्कार उत्तर : “हम क्या कहते हैं, प्रवचनसार में लिखा है - पज्जयमूढ़ा हि परसमया" प्रश्न : “क्रमबद्धपर्याय भी तो एक पर्याय है, फिर उसका निर्णय करना क्यों आवश्यक है ?" उत्तर : “क्रमबद्धपर्याय का निर्णय करना तो आवश्यक है, पर वह दृष्टि का विषय नहीं है। एक बार और भी ध्यान रखो कि पर्याय का निर्णय पर्याय के आश्रय से नहीं होता, किन्तु द्रव्य के आश्रय से होता है। ज्ञायकस्वभाव के आश्रय से क्रमबद्धपर्याय का निर्णय होता है। अत: यह कहा जाता है कि आश्रय करनयोग्य एकमात्र अपना ज्ञायकस्वभाव ही है, पर्याय आश्रय करनेयोग्य नहीं है।' प्रश्न : “तोफिरक्रमबद्धपर्याय का निर्णय करेया नहीं?" उत्तर : “निर्णय तो करो, आश्रय मत करो। हम आश्रय करने का निषेध करते हैं, तो तुम निर्णय करने का निषेध करने लगते हो? हम तो यह कहते हैं कि ज्ञायकस्वभाव के आश्रय से क्रमबद्ध का निर्णय होगा। अतः क्रमबद्धपर्याय का निर्णय करने के लिए ज्ञायकस्वभाव का आश्रय करो। ज्ञायकस्वभाव के आश्रय से क्रमबद्ध का निर्णय सहज हो जाएगा। क्रमबद्ध के निर्णय करने की जरूरत तो है ही, आश्रय करने की जरूरत नहीं। क्रमबद्ध का निर्णय तो महापुरुषार्थ का कार्य है। उससे सारी दृष्टि ही पलट जाती है। यह कोई साधारण बात नहीं क्रमबद्धपर्याय है। यह तो जैनदर्शन का मर्म है।" प्रश्न : “जब सबकुछ क्रमबद्ध ही है तो फिर जब हमारी क्रमबद्धपर्याय में क्रमबद्ध का निर्णय होना होगा, तब आएगा। उसके पहिले क्रमबद्धपर्याय हमारी समझ में भी कैसे आ सकती है ? मान लो हमारी समझ में क्रमबद्ध आने में अनन्त भव बाकी हैं, तो अभी कैसे आ सकती है ?" उत्तर : “यह बात किसके आश्रय से कहते हो? क्या तुम्हें क्रमबद्ध का निर्णय हो गया है ? नहीं, तो फिर यह कहने का तुम्हें क्या अधिकार है ? जिसे क्रमबद्ध का निर्णय हो जाता है, उसे ऐसा प्रश्न ही नहीं उठता है । क्रमबद्ध की श्रद्धा वाले के अनन्त भव ही नहीं होते । क्रमबद्ध की श्रद्धा तो भव का अभाव करने वाली है। जिसके अनन्त भव बाकी हों, उसकी समझ में क्रमबद्ध आ ही नहीं सकती; क्योंकि उसकी दृष्टि ज्ञायक के सन्मुख नहीं होती और ज्ञायक के सन्मुख दृष्टि हुए बिना क्रमबद्धपर्याय समझ में नहीं आती है। ____ज्ञायक के सन्मुख होकर जहाँ क्रमबद्ध का निर्णय किया वहाँ भव उड़ जाते हैं। क्रमबद्धपर्याय का निर्णय होने पर निर्मल पर्याय मेरा कर्म और मैं उसका कर्ता - यह बात भी नहीं रहती। पर्याय स्वसमय पर होगी ही - ऐसी श्रद्धा होने से उसे करने की कोई व्याकुलता नहीं रहती । मुझे भव नहीं - इसप्रकार की नि:शंकता प्रकट हो जाती है। क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में कर्त्तापन की बुद्धि उड़ जाती (30)
SR No.008346
Book TitleChaitanya Chamatkar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages38
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size204 KB
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