SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 29
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ क्रमबद्धपर्याय आज के बहुपर्षिता विषय 'क्रमबद्धपर्याय' के संबंध में विक्रम की इक्कीसवीं शती में क्रमबद्ध की चर्चा आरम्भ करने वाले पूज्य श्री कानजी स्वामी से उनकी ही जन्म-जयंती के अवसर पर दि. २८.४.१९७९ को बंबई में सायंकालीन तत्त्वचर्चा के समय हजारों मुमुक्षु बन्धुओं के बीच सम्पादक आत्मधर्म द्वारा लिया गया इन्टरव्यू जन-जन की जानकारी के लिये यहाँ प्रस्तुत है। 'क्रमबद्धपर्याय' पर हुए स्वामीजी के प्रवचन यद्यपि 'ज्ञेयस्वभाव-ज्ञानस्वभाव' नाम से प्रकाशित हो चके हैं; तथापि उनके ताजे विचार समाज को प्राप्त हों - यही उद्देश्य रहा है इस इन्टरव्यू का। ध्यान रहे टेप के आधार पर सम्पादित यह इन्टरव्यू स्वामीजी को दिखा लिया गया है। क्रमबद्धपर्याय सम्बन्ध में हम एक लेखमाला चला रहे हैं। उसे बाद में पुस्तकाकार भी प्रकाशित किया जायेगा। आपने इस युग में 'क्रमबद्धपर्याय' का एक प्रकार से उद्घाटन ही किया है। इसके सन्दर्भ में उठने वाली अनेक शंकाओं-आशंकाओं के सम्बन्ध में आपके ताजे विचार पाठकों तक पहुँचाना बहुत उपयोगी रहेगा। यदि आपकी अनुमति हो तो कुछ बातें आपसे पूछू ?" वे अपनी बात आरम्भ करते हुए बोले - "भाई! तुम्हें जो पूछना हो पूछो, हम कब मना करते हैं ? समझने के लिए जिज्ञासा भाव से पूछने वाले आत्मार्थियों के लिए तो हमारा दरवाजा सदा ही खुला रहता है। वादविवाद करनेवालों के लिए हमारे पास समय नहीं है। वादविवाद में कोई सार तो निकलता नहीं । चर्चा के लिए तो कोई मनाई नहीं है। पण्डित टोडरमलजी ने रहस्यपूर्ण चिट्ठी में लिखा है कि - "साधर्मी के तो परस्पर चर्चा ही चाहिए।" क्रमबद्धपर्याय पर लिखकर तुम अच्छा ही कर रहे हो। कम से कम लोगों का ध्यान तो इस ओर जाएगा। जिसकी भली होनहार होगी, उनके ध्यान में बात जमेगी भी। धर्म का मूल सर्वज्ञ है', क्रमबद्ध का निर्णय हुए बिना सर्वज्ञ का निर्णय नहीं हो सकता। धर्म का आरम्भ ही क्रमबद्धपर्याय के निर्णय से होता है। इसका निर्णय करना बहुत जरूरी है।" प्रश्न : “आप तो पर्याय पर दृष्टि रखनेवाले को पर्यायमूढ़ कहते हो?" “धर्म का मूल सर्वश है, क्रमबद्धपर्याय का निर्णय हुए बिना सर्वज्ञ का निर्णय नहीं हो सकता । धर्म का आरंभ ही क्रमबद्ध के निर्णय से होता है। इसका निर्णय करना बहुत जरूरी है।" उक्त शब्द स्वामीजी ने तब कहे जब उनसे कहा गया कि - "आत्मधर्म के संपादकीय में क्रमबद्धपर्याय' के (29)
SR No.008346
Book TitleChaitanya Chamatkar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages38
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size204 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy