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________________ १४४ ऐसे क्या पाप किए! १४५ दिगम्बरत्व को स्वाभाविकता, सहजता और निर्विकारिता के साथ उसकी अनिवार्यता से अपरिचित कतिपय महानुभावों को मुनिराज की नग्नता में असभ्यता व असामाजिकता जो दृष्टि गोचर होती है, वह उनके दृष्टिकोण का फेर है। ऐसे लोग समय-समय पर नग्नता जैसे सर्वोत्कृष्ट रूप से नाक भौं सिकोड़ते रहते हैं, घृणा का भाव भी व्यक्त करते रहते हैं। पर उन्हें नग्नता को मात्र निर्विकार दृष्टि से देखना चाहिए। अन्य दर्शनों में भी नग्नता को ही साधु का उत्कृष्टतम रूप माना गया है। परमहंस नामक पर मत के साधु भी नग्न ही रहते हैं - ऐसा उनके ही पुराणों में उल्लेख है। हाँ, निर्विकारी हुए बिना नग्नता निश्चित ही निन्दनीय है नग्नता के साथ निर्विकार होना अनिवार्य है। केवल तन से नग्न होने का नाम दिगम्बरत्व नहीं है। राग-द्वेष, काम-क्रोधादि विकारी भावों से मन (आत्मा) की नग्नता के साथ तन की नग्नता ही सच्चा दिगम्बरत्व है। ऐसी नग्नता को कभी भी लज्जाजनक अशिष्ट एवं अश्लील नहीं कहा जा सकता । ऐसी नग्नता तो परम पूज्य है। हिन्दू धर्म के प्रसिद्ध पुराण पुरुष शुक्राचार्य के कथानक से यह बात अत्यन्त स्पष्ट है कि तन की नग्नता के साथ मन का निर्विकारी होना आवश्यक है, अन्यथा जो नग्नता पूज्य है वहीं निन्दनीय हो जाती है। कहा जाता है कि शुक्राचार्य युवा थे, पर शिशुवत् निर्विकारी थे। अतः सहज भाव से नग्न रहते थे। एक दिन वे तलाव के किनारे से जा रहे थे, तलाव में कुछ कन्यायें निर्वस्त्र होकर स्नान कर रहीं थीं, वे उन्हें देख जरा भी नहीं लजाई । वे कन्यायें व शुक्राचार्य एक दूसरे की नग्नता से जरा भी प्रभावित नहीं हुए। थोड़ी देर बाद शुक्राचार्य के वयोवृद्ध पिता वहाँ से निकले। उन्हें देखते ही सभी कन्यायें लज्जा गईं। न केवल लजाईं क्षुब्ध भी हो गईं। जल क्रीड़ा को जलांजलि देकर भागी और सबने अपने-अपने वस्त्र पहन लिए तथा लज्जा से उनकी आँखें जमीन में गड़ गई। जैन साधु दिगम्बर क्यों होते हैं देखो! वे कन्यायें युवक को नग्न देखकर तो लजाई नहीं और एक वृद्ध व्यक्ति को देखकर लजा गईं। जरा सोचिए इसका क्या कारण हो सकता है? बस यही न कि तन से नंगा युवक मन से भी नंगा था, निर्विकारी था, और उसके पिता अभी मन से पूर्ण निर्विकारी नहीं हो सके थे। यह बात नारियों की निगाह से छिपी नहीं रही, रह भी नहीं सकती। कोई कितना भी छिपाये, पर मन का विकार तो सिर पर चढ़कर बोलता है। "मुखाकृति कह देत है, मैले मन की बात' नग्नता से नफरत करने का अर्थ है कि हमें अपना निर्विकारी होना पसन्द नहीं है। पापी रहना व उसे वस्त्रों से छुपाये रहना ही पसंद है। शरीर में हरे-भरे घावों को खुला रखना भी मौत को आमंत्रण देना है। अतः यदि मन में विकार के घाव हैं तो तन को वस्त्र से ढकना ही होगा। पर ध्यान रहे, तन की नग्नता के साथ मन की नग्नता (मन को निर्विकारी) होना ही चाहिए, अन्यथा कोई लाभ नहीं होगा। नग्नता कलंकित ही होगी, अपमानित भी होगी? इसीलिए तो कहा है - “सम्यग्ज्ञानी होय वहुरि दृढ़ चारित लीजे।" बिना आत्मज्ञान के भी कभी-कभी व्यक्ति मुनिव्रत अंगीकार कर लेता है, पर उससे कोई लाभ नहीं होकर उल्टा सनिमित्तों से दूर ही हो जाता है। आचार्य कुन्दकुन्ददेव भावपाहुड़ में स्वयं लिखते हैं - "णग्गो पावह दुःखं, णग्गे संसार सायरे भमइ। णग्गो न लहहि बोहि, जिन भावणं वज्जिओ सुइदं जिन भावना से रहित केवल तन नग्न व्यक्ति दुःख पाता है, वह संसार सागर में ही गोते खाता है, उसे बोध की प्राप्ति नहीं होती अतः तन से नग्न होने के पहले मन से नग्न अर्थात् निर्विकारी होना आवश्यक है। जिनागम के सिवाय अन्य जैनेतर शास्त्रों एवं पुराणों में भी दिगम्बर मुनियों के उल्लेख मिलते हैं। (73)
SR No.008338
Book TitleAise Kya Pap Kiye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size489 KB
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