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________________ १४२ ऐसे क्या पाप किए ! नग्नता स्पर्श इन्द्रिय पर विजय प्राप्त होने की पहचान है। जिस तरह शरीर में लगी एक छोटी सी फाँस भी असह्य वेदना का कारण बनती है, उसी तरह एक वस्त्र का भी परिग्रह असीम दुःख का कारण है और जब दिगम्बर मुनि को जितेन्द्रिय होने से वस्त्रादि की आवश्यकता का अनुभव नहीं होता तो वे वस्त्रादि परिग्रह रखकर अनावश्यक एक नई झंझट मोल क्यों ले? आकुलता को आमंत्रण क्यों दें? वस्त्रादि की संभाल करना, उनके रख-रखाव की चिन्ता करना, धुलाई की व्यवस्था करना, नवीन वस्त्रों की व्यवस्था करना - यह सब सहज नहीं होता है। जब व्यक्ति को एक वस्त्र की झंझट छूट जाने से हजारों अन्य झंझटों से सहज ही मुक्ति मिल जाती हो तो वह बिना वजह वस्त्र का बोझा ढोए ही क्यों? एक लंगोटी को स्वीकार करते ही पूरा का पूरा परिग्रह माथे मढ़ जाता है। एक लंगोटी स्वीकार करते ही दूसरे दिन बदलने को दूसरी लंगोटी चाहिए या नहीं? उसे धोने को पानी-सोडा-साबुन, रख-रखाव के लिए पेटी, पानी के लिए बर्तन, बर्तन के लिए (कोठरी) ताला-चाबी, घर के लिए घरवाली । घरवाली के भरण-पोषण के लिए धंधा-व्यापार । कहाँ जाकर अन्त आयेगा इसका। फिर हममें तुममें और साधु में अन्तर ही क्या रहेगा? इसीलिए तो पूजन की पंक्ति में कहा है - “फाँस तनक सी तन में साले, चाह लंगोटी की दुःख भालें" सवस्त्र साधु पूर्ण अहिंसक निर्मोही और अपरिग्रही रह ही नहीं सकता। स्वाधीन व स्वावलम्बी भी नहीं रह सकता। वह लज्जा परिषह जयी भी नहीं है। अन्नपान (भोजन) के पक्ष में भी कदाचित कोई यही तर्क दे सकता है, पर आहार लेना अशक्यानुष्ठान है। आहार के बिना तो जीवन ही संभव नहीं है, पर वस्त्र के साथ ऐसी कोई समस्या नहीं है। वस्त्र के बिना जीवन संभव है, संभव तो है ही वस्त्रधारियों की अपेक्षा सुखद हैं, प्राकृतिक है अतः स्वास्थ के भी अनुकूल है। जैन साधु दिगम्बर क्यों होते हैं दूसरे, भोजन यदि स्वाभिमान के साथ न मिले, निर्दोष न मिले एवं निरन्तराय न मिले तो छोड़ा भी जा सकता है, छोड़ भी दिया जाता है, पर वस्त्र के साथ ऐसा होना संभव नहीं है। उसे तो हर हालत में धारण करना, यथा समय बदलना ही होगा। रख-रखाव की व्यवस्था भी करनी ही होगी। अतः वस्त्र धारण करने में दीनता-हीनता-पराधीनता और आकुलता की संभावना सर्वाधिक है। दिगम्बरत्व मुनिराज या साधु का भेष या ड्रेस नहीं है, जिसे मनमाने ढंग से बदला जा सके। यह तो साधु का स्वाभाविक स्वस्थ रूप है। अपने मन को इस दिगम्बरत्व की स्वाभाविकता स्वीकृत होने में ही दिगम्बरत्व होता है। इस संदर्भ में एक प्रसिद्ध वैज्ञानिक आर्के की उस घटना का स्मरण किया जा सकता है जिसमें वह सारे नगर में नंगा नाचा था। उसके बारे में कहा जाता है कि वह एक वैज्ञानिक सूत्र की खोज में बहुत दिनों से परेशान था। दिन-रात उसी की खोज में डूबा रहता था। एक दिन बाथरूम में नग्न होकर स्नान कर रहा था कि अचानक उसे उस बहु प्रतीक्षित अन्वेषणीय सूत्र का समाधान मिल गया, जिससे उसके हर्ष का ठिकाना न रहा। वह भाव विभोर हो गया। राजा को यह खुश की खबर सुनाने के लिए स्नानघर से वैसा नंगा ही बाहर निकलकर भरे बाजार के मार्ग से दौड़ता हुआ राजा के पास जा पहुँचा। उसे नग्न देख राजा को आश्चर्य भी हो रहा था और मन ही मन हंसी भी आ रही थी; परन्तु उस वैज्ञानिक को कुछ भी अस्वाभाविक नहीं लग रहा था। वह अपनी धुन का धनी अपनी ही गाये जा रहा था। __वस्तुतः ऐसी धुन के बिना, जिसमें व्यक्ति अन्य सब कुछ भूल सा जाता है, अपने लक्ष्य की प्राप्ति संभव नहीं है। चाहे वह भौतिक विज्ञान की खोज हो या आत्म विज्ञान की, सर्वज्ञस्वभावी आत्मा की खोज हो। अतः सर्वज्ञस्वभावी आत्मा के खोजी मुनिराज नग्न ही होते हैं। (72)
SR No.008338
Book TitleAise Kya Pap Kiye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size489 KB
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