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________________ १४६ ऐसे क्या पाप किए! रामायण के सर्ग १४ के २२वें श्लोक में राजा दशरथ जैन श्रमणों को आहार देते बताये गये हैं। भूषण टीका में श्रमण का अर्थ स्पष्ट रूपेण दिगम्बर मुनि ही किया है। श्रीमद्भागवत और विष्णुपुराण में ऋषभदेव का दिगम्बर मुनि के रूप में उल्लेख है। वायुपुराण, स्कन्ध पुराण में भी दिगम्बर मुनि का अस्तित्व दर्शाया गया है। ईसाई धर्म में भी दिगम्बरत्व को स्वीकार करते हुए कहा गया है कि आदम और हव्वा नग्न रहते हुए कभी नहीं लजाये और न वे विकास के चंगुल में फँसकर अपने सदाचार से हाथ धो बैठे। परन्तु जब उन्होंने पाप-पुण्य का वर्जित (निषिद्ध) फल खा लिया तो वे अपनी प्राकृतदशा खो बैठे और संसार के साधारण प्राणी हो गये। ___ इस प्रकार हम देखते हैं कि इतिहास एवं इतिहासातीत श्रमण एवं वैष्णव साहित्य के आलोक में यहाँ तक कहा गया है कि दिगम्बर मुनि हुए बिना मोक्ष की साधना एवं केवल्यप्राप्ति संभव ही नहीं हैं। भगवान महावीर के विश्वव्यापी संदेश भगवान महावीर के संदेशों के अनुसार प्रत्येक आत्मा स्वभाव से परमात्मा है अर्थात - शक्तिरूप में सभी जीवों में परमात्मा बनने की शक्ति विद्यमान है, योग्यता है। अपने स्वरूप को या स्वभाव को जानने से, पहचानने से और उसी में जमने-रमने से, उसी का ध्यान करने से वह अव्यक्त स्वाभाविक परमात्म शक्ति पर्याय में प्रगट हो जाती है। यही आत्मा से परमात्मा बनने की प्रक्रिया है। जिस तरह मूर्तिकार पहले पत्थर में छुपी हुई (अव्यक्त) प्रतिमा को अपनी भेदक दृष्टि से, कल्पना शक्ति से देख लेता है, जान लेता है, पश्चात् उस कल्पना को पूर्ण विश्वास के साथ साकार रूप प्रदान कर देता है। जिसतरह एक्स-रे मशीन हमारे शरीर के ऊपर पहने कपड़े, शरीर पर मड़े चमड़े और माँस-खून आदि के अन्दर छिपी टूटी हुई हड्डी का फोटोग्राफ ले लेती है; ठीक उसीप्रकार साधक जीव अपनी ज्ञान-किरणों से, शरीर का, द्रव्येन्द्रियों, भावेन्द्रियों एवं रागादि विकारीभावों का आत्मा से भेदज्ञान करके उसके अन्दर छिपे ज्ञानानन्द स्वभावी, सत् चितआनन्दमय, अलख निरंजन भगवान आत्मा का दर्शन कर लेता है, आत्मा का अनुभव कर लेता है। पुराण कहते हैं कि यही भेद-विज्ञान और आत्मानुभूति का काम भगवान महावीर के जीव ने अपनी दस भव पूर्व शेर की पर्याय में आकाशमार्ग से आये दो मुनिराजों के सम्बोधन से प्रारंभ किया था और दस भव बाद महावीर की पर्याय में उस मुक्तिमार्ग की प्रक्रिया को पूरा कर वे परमात्मा बन गये। आत्मा चैतन्य चिन्तामणि रत्न है यह आत्मा चैतन्य चिन्तामणि रत्न है। जैसे - चिन्तामणि रत्न को चिन्तामणि रत्न के रूप में ही सदैव रहने के लिये नया कुछ करना नहीं पड़ता, उसमें कुछ मिलाना या उसमें से कुछ हटानानिकालना नहीं पड़ता; ठीक उसी भाँति चैतन्य चिन्तामणि आत्मा को आत्मा के रूप में ही सदैव रहने के लिये नया कुछ नहीं करना पड़ता। आत्मा अपने आप में एक ऐसा परिपूर्ण पदार्थ है, जिसे पूर्ण सुखी रहने के लिये कुछ भी नहीं करना पड़ता। जैसे बहुमूल्य मणियों की माला मात्र देखने-जानने और आनन्द लेने की वस्तु है; बस उसीतरह यह आत्मा अमूल्य चैतन्य चिन्तामणि है। - सुखी जीवन, पृष्ठ-७८
SR No.008338
Book TitleAise Kya Pap Kiye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size489 KB
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