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________________ जैन साधु दिगम्बर क्यों होते हैं १४१ १४० ऐसे क्या पाप किए ! ऐसे आत्म साधक जैन साधु नवजात शिशुवत अत्यन्त निर्विकारी होने से नग्न ही रहते हैं। उनकी नग्नता निर्विकार की सूचक है बालक वत् उन्हें वस्त्र धारण करने का विकल्प ही नहीं आता, आवश्यकता ही अनुभव नहीं होती। जिस तरह काम वासना से रहित बालक माँ-बहिन के समक्ष लजाता नहीं हैं, शरमाता नहीं है, संकोच भी नहीं करता। माँबहिनों को भी उसे नग्न देखने से, गोद में लेने से, अपना स्तनपान कराने से भी संकोच नहीं होता, लज्जा नहीं आती; ठीक इसी तरह निर्विकारी मुनिराजों को भी लज्जा नहीं आती। उनके दर्शन से भक्तों को भी कोई संकोच नहीं होता। फिर बिना प्रयोजन जैन साधु वस्त्रों का बोझा क्यों रखें। इस शरीर के लिए परिग्रह की पोटली क्यों बाँधे । उन्हें धोने आदि का हिंसोत्पादक पापारंभ क्यों करें? जैनदर्शन के अनुसार जैन साधु की निर्मल परिणति में छठवें-सातवें गुणस्थान की सर्वोच्च-सर्वश्रेष्ठ भूमिका होती है, जिसमें अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण व प्रत्याख्यानावरण क्रोध-मान-माया व लोभ कषायों का अभाव हो जाता है, अतः इस भूमिका में वस्त्रग्रहण करने का भाव ही नहीं आता। यदि कोई बलात् पहना दें तो वे उसे उपसर्ग (आपतित संकट) मानकर उस उपसर्ग के दूर न होने तक खान-पान का त्याग कर सब कुतर्क होंगे; क्योंकि वस्तु के स्वरूप में कोई तर्क नहीं चलता। वस्तु का स्वरूप तो तर्क-वितर्क से परे हैं। अग्नि गर्म व पानी ठंडी क्यों है? नारी के मूंछे व मोरनी के पंख क्यों नहीं होते? इसके पीछे तर्क खोजने की जरूरत नहीं है। लौकिक दृष्टि से भी साधुओं को सामाजिक सीमाओं में नहीं घेरा जाता, क्योंकि वे लोक व्यवहार से ऊपर उठ चुके हैं, व्यवहारातीत हो गये हैं। वे तो वनवासी सिंह की भाँति पूर्ण स्वतंत्र, स्वावलम्बी और अत्यन्त निर्भय होते हैं। इसी कारण वे मुख्यतया वनवासी होते हैं। ___यदि कोई पवित्र भावना से जैन साधु के दिगम्बरत्व या नग्नता के कारणों पर गंभीरता से विचार करें मीमांसा करना चाहे तो निम्नांकित बिन्दु विचारणीय है : जैन साधु का दिगम्बरत्व या नग्नता निर्दोषता, निर्भयता, निःशंकता, निर्पेक्षता, निश्चिन्तता, निर्लोभिता एवं निर्विकारता की परिचायक है। अर्थात् जैन साधु निर्दोष हैं, निर्भय है, निःशंक हैं, निर्पेक्ष हैं, निश्चिंत है, निर्लोभी हैं, और निर्विकार हैं अतः नग्न हैं तथा पूर्ण स्वाधीन हैं, संयमी हैं, सहिष्णु हैं, अतः नग्न है, निष्परिग्रही है। वस्त्र विकार के प्रतीक हैं, लज्जा आदि काम विकार को ढकने व छुपाने के साधन है। भय, चिन्ता व आकुलता उत्पन्न कराने में प्रबल हेतु हैं। ममत्व-मोह बढ़ाने में निमित्त हैं। अतः मुनि नग्न ही रहते हैं। दो-तीन वर्ष तक के बालकों में काम-विकार नहीं होता तो उसे नग्न रहने में लज्जा नहीं आती। अतः जैन साधु नग्न ही रहते हैं। जो इन्द्रियों को जीतता है, वह जितेन्द्रिय है इस अर्थ में जैन साधु जितेन्द्रिय हैं। नग्नता जितेन्द्रिय होने का पक्का प्रमाण है। जिसे अखण्ड आत्मा को प्राप्त करना है, उसे अखण्ड स्पर्श इन्द्रिय को जीत ही लेना चाहिए। देते हैं। संज्वलन क्रोध-मान माया लोभ कषाय के सिवाय अनन्तानुबंधी आदि उपर्युक्त तीनों कषायों की चौकड़ी का अभाव हो जाने से उनके पूर्ण निर्ग्रन्थ दशा प्रगट हो गई है। इस तरह जब उनके मन में ही, आत्मा में ही कोई ग्रन्थि (गाँठ) नहीं रही तो तन पर वस्त्र की गाँठ कैसे लगी रह सकती है। अतः जैनसाधु दिगम्बर ही होते हैं। वैसे सवस्त्र व निर्वस्त्र दोनों ही पहलुओं के पक्ष-विपक्ष में अनेक तर्क दिए जा सकते हैं, उनके लाभ-अलाभ गिनाये जा सकते हैं। पर वे (71)
SR No.008338
Book TitleAise Kya Pap Kiye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size489 KB
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