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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार २२६ सम्मइंसणणाणं एसो लहदि त्ति णवरि ववदेसं। सव्वणयपक्खरहिदो भणिदो जो सो समयसारो।। १४४ ।। सम्यग्दर्शनज्ञानमेष लभत इति केवलं व्यपदेशम्। सर्वनयपक्षरहितो भणितो यः स समयसारः।। १४४ ।। अयमेक एव केवलं सम्यग्दर्शनज्ञानव्यपदेशं किल लभते। यः खल्वखिलनयपक्षाक्षुण्णतया विश्रान्तसमस्तविकल्पव्यापारः स समयसारः। यतः प्रथमतः श्रुतज्ञानावष्टम्भेन ज्ञानस्वभावमात्मानं निश्चित्य, ततः खल्वात्मख्यातये, परख्यातिहेतूनखिलाएवेन्द्रियानिन्द्रियबुद्धीरवधार्य आत्मा-भिमुखीकृतमतिज्ञानतत्त्वः, तथा नानाविधनयपक्षालम्बनेनानेकविकल्पै-राकुलयन्ती: श्रुतज्ञानबुद्धीरप्यवधार्य श्रुतज्ञानतत्त्वमप्पात्माभिमुखीकुर्वन्नत्य-न्तमविकल्पो भूत्वा झगित्येव स्वरसत एव व्यक्तीभवन्तमादिमध्यान्तविमुक्तम-नाकुलभेकं केवलमखिलस्यापि विश्वस्योपरि सम्यक्त्व और सुज्ञानकी, जिस एकको संज्ञा मिले । नयपक्ष सकल विहीन भाषित, वो समयका सार है ।।१४४।। गाथार्थ:- [यः] जो [ सर्वनयपक्षरहितः] सर्व नयपक्षोंसे रहित [ भणितः] कहा गया है [ सः] वह [ समयसार:] समयसार है; [ एषः] इसी (-समयसारको ही) [ केवलं] केवल [ सम्यग्दर्शनज्ञानम् ] सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान [इति] ऐसी [ व्यपदेशम् ] संज्ञा (नाम) [ लभते ] मिलती है। (नामोंके भिन्न होने पर भी वस्तु एक ही है।) टीका:-वास्तवमें समस्त नयपक्षोंके द्वारा खंडित न होनेसे समस्त विकल्पों का व्यापार रुक गया है, ऐसा समयसार है; वास्तवमें इस एकको ही केवल सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानका नाम प्राप्त है। ( सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान समयसारसे अलग नहीं है, एक ही है।) प्रथम, श्रुतज्ञानके अवलंबनसे ज्ञानस्वभाव आत्माका निश्चय करके, और फिर आत्माकी प्रगट प्रसिद्धिके लिये, पर पदार्थकी प्रसिद्धिकी कारणभूत इंद्रियोंद्वारा और मनके द्वारा प्रवर्तमान बुद्धियोंको मर्यादामें लेकर जिसने मतिज्ञान-तत्त्वको ( - मतिज्ञानके स्वरूपको) आत्मसंमुख किया है ऐसा, तथा जो नानाप्रकारके नयपक्षोंके आलंबनसे होने वाले अनेक विकल्पोंके द्वारा आकुलता उत्पन्न करनेवाली श्रुतज्ञानकी बुद्धियोंको भी मर्यादामें लाकर श्रुतज्ञान-तत्त्वको भी आत्मसंमुख करता हुआ, अत्यंत विकल्परहित होकर, तत्काल निजरससे ही प्रगट होता हुआ, आदि-मध्य और अंत से रहित, अनाकुल , केवल एक, संपूर्ण हो विश्वपर मानों Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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