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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार १८० ज्ञानी ज्ञानस्यैव कर्ता स्यात्जे पोग्गलदव्वाणं परिणामा होंति णाण आवरणा। ण करेदि ताणि आदा जो जाणदि सो हवदि णाणी।।१०१ ।। ये पुद्गलद्रव्याणां परिणामा भवन्ति ज्ञानावरणानि। न करोति तान्यात्मा यो जानाति स भवति ज्ञानी।। १०१ ।। ये खलु पुद्गलद्रव्याणां परिणामा गोरसव्याप्तदधिदुग्धमधुराम्लपरिणामवत्पुद्गलद्रव्यव्याप्तत्वेन भवन्तो ज्ञानावरणानि भवन्ति तानि तटस्थगोरसाध्यक्ष इव न नाम करोति ज्ञानी, किन्तु यथा स गोरसाध्यक्षस्तदर्शनमात्मव्याप्तत्वेन प्रभवव्याप्य पश्यत्येव तथा पुद्गलद्रव्यपरिणाम निमित्तं ज्ञानमात्मव्याप्यत्वेन प्रभवव्याप्य जानात्येव। एवं ज्ञानी ज्ञानस्यैव कर्ता स्यात्। तात्पर्य यह है कि:-द्रव्यदृष्टिसे कोई द्रव्य किसी अन्य द्रव्यका कर्ता नहीं; परंतु पर्यायदृष्टिसे किसी द्रव्यकी पर्याय किसी समय किसी अन्य द्रव्यकी पर्यायकी निमित्त होती है इसलिये अपेक्षासे एक द्रव्यके परिणाम अन्य द्रव्यके परिणामों के निमित्तकर्ता कहलाते है। परमार्थसे द्रव्य अपने ही परिणामोंका कर्ता है, अन्यके परिणामका अन्यद्रव्य कर्ता नहीं होता। अब यह कहते हैं कि ज्ञानी ज्ञानका ही कर्ता है: ज्ञानावरणआदिक सभी, पुद्गल दरव परिणाम है । करता नहीं आत्मा उन्हें , जो जानता वो ज्ञानी है ।। १०१।। गाथार्थ:- [ये ] जो [ज्ञानावरणानि] ज्ञानावरणादिक [ पुद्गलद्रव्याणां] पुद्गलद्रव्योंके [ परिणामाः ] परिणाम [ भवन्ति ] हैं [ तानि] उन्हें [ यः आत्मा] जो आत्मा [ न करोति] नहीं करता परंतु [जानाति] जानता है [ सः] वह [ज्ञानी] ज्ञानी [ भवति ] है। टीका:-जैसे दूध-दही जो कि गोरसके द्वारा व्याप्त होकर उत्पन्न होनेवाले गोरसके मीठे-खट्टे परिणाम है, उन्हें गोरसका तटस्थ दृष्टा पुरुष करता नहीं है, इसीप्रकार ज्ञानावरणादिक जो कि वास्तव में पुद्गलद्रव्यके द्वारा व्याप्त होकर उत्पन्न होनेवाले पुद्गलद्रव्यके परिणाम हैं, उन्हें ज्ञानी करता नहीं है; किन्तु जैसे वह गोरस का दृष्टा, स्वतः (देखनेवालेसे) व्याप्त होकर उत्पन्न होनेवाले गोरस-परिणामके दर्शन में व्याप्त होकर मात्र देखता ही है, इसीप्रकार ज्ञानी, स्वतः (जाननेवालेसे) व्याप्त होकर उत्पन्न होनेवाला , पुद्गलद्रव्य-परिणाम जिसका निमित्त है ऐसे ज्ञानमें व्याप्त होकर, मात्र जानता ही है। इसप्रकार ज्ञानी ज्ञानका ही कर्ता है। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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