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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates कर्ता-कर्म अधिकार जीवो ण करेदि घडं णेव पडं णेव सेसगे दव्वे । जोगवओगा उप्पादगा य तेसिं हवदि कत्ता ।। १०० ।। जीवो न करोति घटं नैव पटं नैव शेषकानि द्रव्याणि । योगोपयोगावुत्पादकौ च तयोर्भवति कर्ता ।। १०० ।। यत्किल घटादि क्रोधादि वा परद्रव्यात्मकं कर्म तदयमात्मा तन्मयत्वानुषङ्गात् व्याप्यव्यापकभावेन तावन्न करोति, नित्यकर्तृत्वानुषङ्गान्निमित्तनैमित्तिकभावेनापि न तत्कुर्यात्। अनित्यौ योगोपयोगावेव तत्र निमित्तत्वेन कर्तारौ । योगोपयोगयोस्त्वा त्मविकल्पव्यापारयोः कदाचिदज्ञानेन करणादात्मापि कर्ताऽस्तु तथापि न परद्रव्यात्मककर्मकर्ता स्यात् । जीव नहिं करे घट पट नहीं, नहिं शेष द्रव्यों जीव करे । उपयोगयोग निमित्तकर्त्ता, जीव तत्कर्ता बने ।। १०० ।। १७९ गाथार्थ:- [ जीवः] जीव [ घटं ] घटको [ न करोति ] नहीं करता, [ पटं न एव ] पटको नहीं करता, [ शेषकानि ] शेष कोई [ द्रव्याणि ] द्रव्योंको [ वस्तुओने ] [ न एव ] नहीं करता; [च] परंतु [ योगोपयोगौ ] जीवके योग और उपयोग [उत्पादकौ ] घटादिको उत्पन्न करनेवाले निमित्त हैं [ तयोः ] उनका [ कर्ता ] कर्ता [ भवति ] जीव होता है । टीका:- वास्तवमें जो घटादिक तथा क्रोधादिक परद्रव्यस्वरूप कर्म हैं उन्हें आत्मा व्याप्यव्यापकभावसे नहीं करता क्योंकि यदि ऐसा करे तो तन्मयताका प्रसंग आ जाये; तथा वह निमित्तनैमित्तिकभावसे भी ( उनको ) नहीं करता क्योंकि यदि ऐसा करे तो नित्यकर्तृत्वका (सर्व अवस्थाओंमें कर्तृत्व होनेका) प्रसंग आ जायेगा। अनित्य (जो सर्व अवस्थाओमें व्यापत नहीं होते ऐसे ) योग और उपयोग ही निमित्तरूपसे उसके (−परद्रव्यस्वरूप कर्मके) कर्ता हैं। ( रागादिविकारयुक्त चैतन्यपरिणामरूप) अपने विकल्पको और (आत्मप्रदेशोंके चलनरूप ) अपने व्यापारको कदाचित् अज्ञानसे करने के कारण योग और उपयोगका तो आत्मा भी कर्ता ( कदाचित् ) भले हो तथापि परद्रव्यस्वरूप कर्मका कर्ता तो ( निमित्तरूपसे भी कदापि ) नहीं है। भावार्थ:-योग अर्थात् आत्मप्रदेशोंका परिस्पन्दन ( चलन) और उपयोग अर्थात् ज्ञानका कषायोंके साथ उपयुक्त होना - जुड़ना। यह योग और उपयोग घटादिक और क्रोधादिकके निमित्त हैं इसलिये उन्हें घटादिक तथा क्रोधादिकका निमित्तकर्ता कहा जावे परंतु आत्माको तो उनका कर्ता नहीं कहा जा सकता। आत्माको संसार - अवस्थामें अज्ञानसे मात्र योग-उपयोगका कर्ता कहा जा सकता है। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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