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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ५० ] [मोक्षमार्गप्रकाशक अर्थ :- जो इन्द्रियोंसे प्राप्त किया सुख है वह पराधीन है, बाधासहित है, विनाशीक है, बन्धका कारण है, विषम है; सो ऐसा सुख इस प्रकार दुःख ही है। इस प्रकार इस संसारी जीव द्वारा किये उपाय झूठे जानना। तो सच्चा उपाय क्या है ? जब इच्छा तो दूर हो जाये और सर्व विषयोंका युगपत् ग्रहण बना रहे तब यह दुःख मिटे। सो इच्छा तो मोह जाने पर मिटे और सबका युगपत् ग्रहण केवलज्ञान होने पर हो। इनका उपाय सम्यग्दर्शनादिक है और वही सच्चा उपाय जानना। इस प्रकार तो मोहके निमित्तसे ज्ञानावरण-दर्शनावरणका क्षयोपशम भी दुःखदायक है उसका वर्णन किया। यहाँ कोई कहे कि - ज्ञानावरण-दर्शनावरणके उदयसे जानना नहीं हुआ, इसलिये उसे दुःखका कारण कहो; क्षयोपशमको क्यों कहते हो? समाधान :- यदि जानना न होना दःखका कारण हो तो पदगलके भी दःख ठहरे. परन्तु दुःखका मूलकारण तो इच्छा है और इच्छा क्षयोपशमसे ही होती है, इसलिये क्षयोपशमको दुःखका कारण कहा है; परमार्थसे क्षयोपशम भी दुःखका कारण नहीं है। जो मोहसे विषय- ग्रहणकी इच्छा है वही दुःखका कारण जानना। मोहनीय कर्म के उदयसे होनेवाला दु:ख और उससे निवृत्ति मोहका उदय है सो दुःखरूप ही है, किस प्रकार सो कहते हैं : दर्शनमोहसे दुःख और उससे निवृत्ति प्रथम तो दर्शनमोहके उदयसे मिथ्यादर्शन होता है; उसके द्वारा जैसा इसके श्रद्धान है वैसा तो पदार्थ होता नहीं है, जैसा पदार्थ है वैसा यह मानता नहीं है, इसलिये इसको आकुलता ही रहती है। जैसे - पागलको किसीने वस्त्र पहिना दिया। वह पागल उस वस्त्रको अपना अंग जानकर अपनेको और वस्त्रको एक मानता है। वह वस्त्र पहिनानेवालेके आधीन होनेसे कभी वह फाड़ता है, कभी जोड़ता है, कभी खोंसता है, कभी नया पहिनाता है - इत्यादि चरित्र करता है। वह पागल उसे अपने आधीन मानता है, उसकी पराधीन क्रिया होती है, उससे वह महा खेदखिन्न होता है। उसी प्रकार इस जीवको कर्मोदयने शरीर सम्बन्ध कराया। यह जीव उस शरीरको अपना अंग जानकर अपनेको और शरीरको एक मानता है। वह शरीर कर्मके आधीन कभी कृष होता है, कभी स्थूल होता है, कभी नष्ट Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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