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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates तीसरा अधिकार ] [५१ होता है, कभी नवीन उत्पन्न होता है - इत्यादि चरित्र होते हैं। यह जीव उसे अपने आधीन मानता है, उसकी पराधीन क्रिया होती है, उससे महा खेदखिन्न होता है। तथा जैसे - जहाँ वह पागल ठहरा था वहाँ मनुष्य, घोड़ा, धनादिक कहींसे आकर उतरे, वह पागल उन्हें अपना जानता है। वे तो उन्हींके आधीन कोई आते हैं, कोई जाते हैं, कोई अनेक अवस्थारूप परिणमन करते हैं; वह पागल उन्हें अपने आधीन मानता है, उनकी पराधीन क्रिया हो तब खेदखिन्न होता है। उसी प्रकार यह जीव जहाँ पर्याय धारण करता है वहाँ स्वयमेव पुत्र, घोड़ा, धनादिक कहीं से आकर प्राप्त हुए, यह जीव उन्हें अपना जानता है। वे तो उन्हींके आधीन कोई आते हैं, कोई जाते हैं, कोई अनेक अवस्थारूप परिणमन करते हैं; यह जीव उन्हें अपने आधीन मानता है, और उनकी पराधीन क्रिया हो तब खेदखिन्न होता है। यहाँ कोई कहे कि - किसी कालमें शरीरकी तथा पुत्रादिककी क्रिया इस जीवके आधीन भी तो होती दिखायी देती है, तब तो यह सुखी होता है ? समाधान:- शरीरादिकके भवितव्यकी और जीवकी इच्छाकी विधि मिलने पर किसी एक प्रकार जैसे वह चाहता है वैसे कोई परिणमित होता है, इसलिये किसी कालमें उसीका विचार होनेपर सुखकासा आभास होता है; परन्तु सर्व ही तो सर्व प्रकारसे जैसे यह चाहता है वैसे परिणमित नहीं होते, इसलिये अभिप्रायमें तो अनेक आकुलता सदाकाल रहा ही करती है। तथा किसी कालमें किसी प्रकार इच्छानुसार परिणमित होते देखकर कहीं यह जीव शरीर, पुत्रादिकमें अहंकार-ममकार करता है; सो इस बुद्धिसे उनको उत्पन्न करनेकी , बढ़ाने की, तथा रक्षा करनेकी चिंतासे निरन्तर व्याकुल रहता है। नाना प्रकार कष्ट सहकर भी उनका भला चाहता है। तथा जो विषयोंकी इच्छा होती है, कषाय होती है, बाह्य-सामग्रीमें इष्ट-अनिष्टपना मानता है, अन्यथा उपाय करता है, सच्चे उपायकी श्रद्धा नहीं करता, अन्यथा कल्पना करता है, सो इन सबका मूलकारण एक मिथ्यादर्शन है। उसका नाश होने पर सबका नाश हो जाता है, इसलिये सब दुःखोंका मूल यह मिथ्यादर्शन है। तथा उस मिथ्यादर्शनके नाशका उपाय भी नहीं करता। अन्यथा श्रद्धानको सत्यश्रद्धान माने तब उपाय किसलिये करे ? तथा संज्ञी पंचेन्द्रिय कदाचित् तत्त्वनिश्चय करनेका उपाय विचारे, वहाँ अभाग्यसे कुदेव-कुगुरु-कुशास्त्रका निमित्त बने तो अतत्त्वश्रद्धान पुष्ट होजाता है। वह तो जानता Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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