SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 93
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates तीसरा अधिकार ] तथा एक विषयको छोड़कर अन्यका ग्रहण करता है ऐसे झपट्टे मारता है उससे क्या सिद्धि होती है ? जैसे मणकी भूखवालेको कण मिले तो क्या भूख मिटती है ? उसी प्रकार जिसे सर्वके ग्रहणकी इच्छा है उसे एक विषयका ग्रहण होने पर क्या इच्छा मिटती है ? इच्छा मिटे बिना सुख नहीं होता, इसलिए यह उपाय झूठा है। कोई पूछता है कि इस उपायसे कई जीव सुखी होते देखे जाते हैं, सर्वथा झूठ कैसे कहते हो? समाधान :- सुखी तो नहीं होते हैं भ्रमसे सुख मानते हैं। यदि सुखी हुए हों तो अन्य विषयोंकी इच्छा कैसे रहेगी ? जैसे – रोग मिटने पर अन्य औषधिको क्यों चाहे ? उसी प्रकार दुःख मिटने पर अन्य विषयोंको क्यों चाहे ? इसलिये विषयके ग्रहण द्वारा इच्छा रुक जाये तो हम सुख मानें। परन्तु जब तक जिस विषयका ग्रहण नहीं होता तब तक तो उसकी इच्छा रहती है और जिस समय उसका ग्रहण हुआ उसी समय अन्य विषय-ग्रहणकी इच्छा होती देखी जाती है, तो यह सुख मानना कैसे है ? जैसे कोई महा क्षुधावान रंक उसको एक अन्नका कण मिला उसका भक्षण करके चैन माने; उसी प्रकार यह महा तृष्णावान उसको एक विषयका निमित्त मिला उसका ग्रहण करके सुख मानता है, परमार्थसे सुख है नहीं। कोई कहे कि जिस प्रकार कण-कण करके अपनी भूख मिटाये उसी प्रकार एक-एक विषयका ग्रहण करके अपनी इच्छा पूर्ण करे तो दोष क्या ? उत्तर :- यदि वे कण एकत्रित हों तो ऐसा ही मान लें, परन्तु जब दूसरा कण मिलता है तब पहले कणका निर्गमन हो जाये तो कैसे भूख मिटेगी ? उसी प्रकार जानने में विषयोंका ग्रहण एकत्रित होता जाये तो इच्छा पूर्ण हो जाये, परन्तु जब दूसरा विषय ग्रहण करता है तब पूर्वमें जो विषय ग्रहण किया था उसका जानना नहीं रहता, तो कैसे इच्छा पूर्ण हो ? इच्छा पूर्ण हुए बिना आकुलता मिटती नहीं है और आकुलता मिटे बिना सुख कैसे कहा जाय? तथा एक विषयका ग्रहण भी मिथ्यादर्शनादिकके सद्भावपूर्वक करता है, इसलिये आगामी अनेक दुःखोंके कारण कर्म बंधते हैं। इसलिये यह वर्तमानमें सुख नहीं है, आगामी सुख का कारण नहीं है, इसलिये दुःख ही है। यही प्रवचनसारमें कहा है : सपरं बाधासहियं विच्छिण्णं बंधकारणं विसमं। जं इंदिएहिं लद्धं तं सोक्खं दुक्खमेव तहा ।।७६ ।। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy