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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates दूसरा अधिकार] [३७ और इतना क्षयोपशम हुआ कि स्पर्शादिक विषयों को जानो या देखो, परन्तु एक काल में एक ही को जानो या देखो। वहाँ इस जीव के सर्वको देखने-जानने की शक्ति तो द्रव्य अपेक्षा पायी जाती है; अन्य काल में सामर्थ्य हो, परन्तु वर्तमान सामर्थ्यरूप नहीं है, क्योंकि अपने योग्य विषयों से अधिक विषयों को देख-जान नहीं सकता। तथा अपने योग्य विषयों को देखने-जानने की पर्याय- अपेक्षा वर्तमान सामर्थ्यरूप शक्ति है, क्योंकि उन्हें देख-जान सकता है; तथा व्यक्तता एक काल में एक ही को देखने या जानने की पायी जाती है। यहाँ फिर प्रश्न है कि - ऐसा तो जाना; परन्तु क्षयोपशम तो पाया जाता है और बाह्य इन्द्रियादिक का अन्यथा निमित्त होने पर देखना-जानना नहीं होता या थोड़ा होता है या अन्यथा होता है, सो ऐसा होने पर कर्म ही का निमित्त तो नहीं रहा ? समाधान :- जैसे रोकने वाले ने यह कहा की पाँच ग्रामों में से एक ग्राम को एक दिन में जाओ, परन्तु इन किंकरों को साथ लेकर जाओ। वहाँ वे किंकर अन्यथा परिणमित हों तो जाना न हो या थोड़ा जाना हो या अन्यथा जाना हो; उसी प्रकार कर्मका ऐसा ही क्षयोपशम हुआ है कि इतने विषयों में एक विषय को एक काल में देखो या जानो; परन्तु इतने बाह्य द्रव्यों का निमित्त होने पर देखो-जानो। वहाँ वे बाह्य द्रव्य अन्यथा परिणमित हों तो देखना-जानना न हो या थोड़ा हो या अन्यथा हो। ऐसा यह कर्म के क्षयोपशम ही का विशेष है, इसलिये कर्म ही का निमित्त जानना। जैसे किसी को अंधकार के परमाणु आड़े आने पर देखना नहीं हो; उल्लू, बिल्ली आदि को उनके आड़े आने पर भी देखना होता है - सो ऐसा यह क्षयोपशम ही का विशेष है। जैसा-जैसा क्षयोपशम होता है वैसा-वैसा ही देखना-जानना होता है। इस प्रकार इस जीव के क्षयोपशमज्ञान की प्रवृत्ति पायी जाती है। तथा मोक्षमार्गमें अवधि-मनःपर्यय होते है वे भी क्षयोपशमज्ञान ही हैं, उनको भी इसी प्रकार एक काल में एकको प्रतिभासित करना तथा परद्रव्यका आधीनपना जानना। तथा जो विशेष है सो विशेष जानना। इस प्राकर ज्ञानावरण-दर्शनावरण के उदयके निमित्तसे बहुत ज्ञान-दर्शन के अंशों का तो अभाव है और उनके क्षयोपशम से थोड़े अंशों का सद्भाव पाया जाता है। मोहनीय कर्मोदयजन्य अवस्था इस जीव को मोह के उदय से मिथ्यात्व और कषायभाव होते हैं। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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