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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ३८] [मोक्षमार्गप्रकाशक दर्शनमोहरूप जीव की अवस्था वहाँ दर्शनमोह के उदयसे तो मिथ्यात्वभाव होता है, उससे यह जीव अन्यथा प्रतीतिरूप अतत्त्वश्रद्धान करता है। जैसा है वैसा तो नहीं मानता और जैसा नहीं है वैसा मानता है। अमूर्तिक प्रदेशों का पुंज, प्रसिद्ध ज्ञानादिगुणोंका धारी अनादिनिधन वस्तु आप है; और मूर्तिक पुद्गलद्रव्योंका पिण्ड प्रसिद्ध ज्ञानादिकों से रहित जिनका नवीन संयोग हुआ ऐसे शरीरादिक पुद्गल पर हैं; इनके संयोगरूप नानाप्रकारकी मनुष्य तिर्यंचादिक पर्यायें होती है - उन पर्यायों में अहंबुद्धि धारण करता है, स्वपरका भेद नहीं कर सकता, जो पर्याय प्राप्त करे उस ही को आपरूप मानता है। तथा उस पर्याय में ज्ञानादिक हैं वे तो अपने गुण हैं, और रागादिक हैं वे अपने को कर्मनिमित्त से औपाधिकभाव हुए हैं, तथा वर्णादिक हैं वे शरीरादिक पुद्गल के गुण हैं, और शरीरादिक में वर्णादिकोंका तथा परमाणुओंका नानाप्रकार पलटना होता है वह पुद्गल की अवस्था है; सो इन सब ही को अपना स्वरूप जानता है, स्वभाव-परभाव का विवेक नहीं हो सकता। तथा मनुष्यादिक पर्यायों में कुटुम्ब-धनादिकका संबन्ध होता है वे प्रत्यक्ष अपने से भिन्न हैं तथा वे अपने आधीन नहीं परिणमित होते तथापि उनमें ममकार करता है कि ये मेरे हैं। वे किसी प्रकार भी अपने होते नहीं, यह ही अपनी मान्यता से ही अपने मानता है। तथा मनुष्यादि पर्यायों में कदाचित् देवादिक का या तत्त्वों का अन्यथा स्वरूप जो कल्पित किया उसकी तो प्रतीति करता है परन्तु यथार्थ स्वरूप जैसा है वैसी प्रतीति नहीं करता। इस प्रकार दर्शनमोह के उदय से जीव को अतत्त्वश्रद्धानरूप मिथ्यात्वभाव होता है। जहाँ तीव्र उदय होता है वहाँ सत्य श्रद्धान से बहुत विपरीत श्रद्धान होता है। जब मंद उदय होता है तब सत्यश्रद्धान से थोड़ा विपरीत श्रद्धान होता है। चारित्रमोहरूप जीव अवस्था जब चारित्रमोहके उदयसे इस जीव को कषायभाव होता है तब यह देखते-जानते हुए भी परपदार्थों में इष्ट-अनिष्टपना मानकर क्रोधादिक करता है। वहाँ क्रोधका उदय होनेपर पदार्थों में अनिष्टपना मानकर उनका बुरा चाहता है। कोई मन्दिरादि अचेतन पदार्थ बुरे लगें तब तोड़ने-फोड़ने इत्यादि रूप से उनका बुरा चाहता है तथा शत्रु आदि सचेतन पदार्थ बुरे लगें तब उन्हें वध-बन्धनादिसे या मारनेसे दुःख उत्पन्न करके उनका बुरा चाहता है। तथा आप स्वयं अथवा अन्य सचेतन-अचेतन पदार्थ किसी प्रकार परिणमति हए, अपनेको वह परिणमन बरा लगा तब अन्यथा परिणमित Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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