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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates वह कार्य करना कहा है। सो परिणामोंकी तो पहचान नहीं है और यहाँ अपराध कितना लगता है, गुण कितना होता है - ऐसे नफा-टोटेका ज्ञान नहीं है व विधि-अविधिका ज्ञान नहीं है। तथा शास्त्राभ्यास करता है तो वहाँ पद्धतिरूप प्रवर्तता है। यदि बाँचता है तो औरोंको सुना देता है, यदि पढ़ता है तो आप पढ़ जाता है, सुनता है तो जो कहते हैं वह सुन लेता है; परन्तु जो शास्त्राभ्यासका प्रयोजन है उसे आप अंतरंगमें नहीं अवधारण करता - इत्यादि धर्मकार्योंके मर्मको नहीं पहिचानता। कितने तो जिस प्रकार कुलमें बड़े प्रवर्तते हैं उसी प्रकार हमें भी करना, अथवा दूसरे करते हैं, वैसा हमें भी करना, व ऐसा करनेसे हमारे लोभादिककी सिद्धि होगी - इत्यादि विचार सहित अभूतार्थधर्मको साधते हैं ।" विद्वानों और मुमुक्षु-बंधुओंका ध्यान आकर्षित करनेके लिये मोक्षमार्गप्रकाशकमें समागत जैनधर्मके मूलतत्त्वको स्पर्श करने वाले कुछ क्रांतिकारी वाक्य-खंड यहाँ प्रस्तुत हैं (१) इसलिये हिंसादिवत् अहिंसादिकको भी बन्ध का कारण जानकर हेय ही मानना। (पृष्ठ २२६) (२) तत्त्वार्थसूत्रमें आस्रव पदार्थका निरूपण करते हुए महाव्रत-अणुव्रतको भी आस्रवरूप कहा है। वे उपादेय कैसे हों ? ( पृष्ठ २२९) सो हिंसाके परिणामोंसे तो पाप होता है और रक्षाके परिणामोंसे संवर कहोगे तो पुण्यबन्ध का कारण कौन ठहरेगा ? ( पृष्ठ २२८) (४) परन्तु भक्ति तो राग-रूप है और रागसे बन्ध है, इसलिये मोक्षका कारण नहीं है। (पृष्ठ २२२) (५) तथा राग-द्वेष-मोहरूप जो आस्रवभाव हैं, उनका तो नाश करने की चिन्ता नहीं और बाह्य क्रिया अथवा बाह्य निमित्त मिटानेका उपाय रखता है, सो उनके मिटाने से आस्रव नहीं मिटता। (पृष्ठ २२७) ' मोक्षमार्गप्रकाशक, प्रस्तुत संस्करण, पृष्ठ २२०-२२१ Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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