SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 38
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (६) Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates परद्रव्य कोई जबरन् तो बिगाड़ता नहीं है, अपने भाव बिगड़े तब वह भी बाह्य निमित्त है। तथा इसके निमित्त बिना भी भाव बिगड़ते हैं, इसलिये नियमरूपसे निमित्त भी नहीं है। इस प्रकार परद्रव्यका तो दोष देखना मिथ्याभाव है, रागादि भाव ही बुरे हैं। (पृष्ठ २४४ ) (७) तथापि करें क्या? सच्चा तो दोनों नयोंका स्वरूप भासित हुआ नहीं, और जिनमतमें दो नय कहे हैं उनमेंसे किसी को छोड़ा भी नहीं जाता; इसलिये भ्रमसहित दोनोंका साधन साधते हैं; वे जीव भी मिथ्यादृष्टि जानना । ( पृष्ठ २४८ ) ( ९ ) (८) सो मोक्षमार्ग दो नहीं हैं, मोक्षमार्गका निरूपण दो प्रकार है । जहाँ सच्चे मोक्षमार्गको मोक्षमार्ग निरूपित किया जाय सो 'निश्चय मोक्षमार्ग' है। और जहाँ जो मोक्षमार्ग तो है नहीं, परन्तु मोक्षमार्गका निमित्त है सहचारी है उसे उपचार से मोक्षमार्ग कहा जाय सो ‘व्यवहार मोक्षमार्ग' है। क्योंकि निश्चय व्यवहारका सर्वत्र ऐसा ही लक्षण है। सच्चा निरूपण सो निश्चय, उपचार निरूपण सो व्यवहार । (पृष्ठ २४८ ) व्यवहारनय स्वद्रव्य - परद्रव्यको व उनके भावोंको व कारण-कार्यादिकको किसी को किसी में मिलाकर निरूपण करता है; सो ऐसेही श्रद्धान से मिथ्यात्व है; इसलिये उसका त्याग करना। तथा निश्चयनय उन्हीं को यथावत् निरूपण करता है, किसी को किसी में नहीं मिलाता; सो ऐसे ही श्रद्धान से सम्यक्त्व होता है; इसलिये उसका श्रद्धान करना । ( पृष्ठ २५१ ) (१०) जैसे मेघ वर्षा होनेपर बहुतसे जीवोंका कल्याण होता है और किसी को उल्टा नुकसान हो, तो उसकी मुख्यता करके मेघका तो निषेध नहीं करना; उसी प्रकार सभा में अध्यात्म उपदेश होनेपर बहुत से जीवोंको मोक्षमार्गकी प्राप्ति होती है, परन्तु कोई उल्टा पापमें प्रवर्ते तो उसकी मुख्यता करके अध्यात्म-शास्त्रों का तो निषेध नहीं करना । (पृष्ठ २९२ ) ( ११ ) और तत्त्वनिर्णय न करनेमें किसी कर्मका दोष है नहीं, तेरा ही दोष है; परन्तु तू स्वयं तो महन्त रहना चाहता है और अपना दोष कर्मादिकको लगाता है; सो जिन आज्ञा माने तो ऐसी अनीति सम्भव नहीं है । ( पृष्ठ ३१९ ) (१२) वात्सल्य अंगकी प्रधानतासे विष्णुकुमारजी की प्रशंसा की है। इस छलसे औरोंको ऊँचा धर्म छोड़कर नीचा धर्म अंगीकार करना योग्य नहीं है । (पृष्ठ २७४ ) Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy