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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates सातवाँ अधिकार] [२०५ तथा वह पूजनादि कार्यको शुभास्रव जानकर हेय मानता है, सो यह सत्य ही है; परन्तु यदि इन कार्योंको छोड़कर शुद्धोपयोगरूप हो तो भला ही है, और विषयकषायरूप-अशुभरूप प्रवर्ते तो अपना बुरा ही किया। शुभोपयोगसे स्वर्गादि हों, अथवा भली वासनासे या भले निमित्त से कर्मके स्थितिअनुभाग घट जायें तो सम्यक्त्वादि की भी प्राप्ति हो जाये। अशुभोपयोगसे नरक-निगोदादि हों, अथवा बुरी वासनासे या बुरे निमित्त से कर्मके स्थिति-अनुभाग बढ़ जायें तो सम्यक्त्वादिक महा दुलेभ हो जाये। तथा शुभोपयोग होनेसे कषाय मन्द होती है और अशुभोपयोग होनेसे तीव्र होती है; सो मन्दकषायका कार्य छोड़कर तीव्रकषायका कार्य करना तो ऐसा है जैसे कड़वी वस्तु न खाना और विष खाना। सो यह अज्ञानता है। फिर वह कहता है - शास्त्रमें शुभ-अशुभको समान कहा है, इसलिये हमें तो विशेष जानना योग्य नहीं है ? समाधान :- जो जीव शुभोपयोगको मोक्षका कारण मानकर उपादेय मानते हैं और शुद्धोपयोगको नहीं पहिचानते, उन्हें शुभ-अशुभ दोनोंको अशुद्धताकी अपेक्षा व बन्धकारणकी अपेक्षा समान बतलाया है। तथा शुभ-अशुभका परस्पर विचार करें तो शुभभावोंमें कषाय मन्द होती है, इसलिये बन्ध हीन होता है; अशुभभावोंमें कषाय तीव्र होती है, इसलिये बन्ध बहुत होता है। इस प्रकार विचार करने पर अशुभकी अपेक्षा सिद्धान्तमें शुभको भला भी कहा जाता है। जैसे - रोग तो थोड़ा या बहुत बुरा ही है, परन्तु बहुत रोगकी अपेक्षा थोड़े रोगको भला भी कहते हैं। इसलिये शुद्धोपयोग न हो, तब अशुभसे छूटकर शुभमें प्रवर्तना योग्य है; शुभको छोड़कर अशुभमें प्रवर्तना योग्य नहीं है। फिर वह कहता है – कामादिक या क्षुधादिक मिटानेकी अशुभरूप प्रवृत्ति तो हुए बिना रहती नहीं है, और शुभ प्रवृत्ति इच्छा करके करनी पड़ती है; ज्ञानीको इच्छा चाहिये नहीं, इसलिये शुभका उद्यम नहीं करना ? उत्तर :- शुभ प्रवृत्तिमें उपयोग लगनेसे तथा उसके निमित्तसे विरागता बढ़नेसे कामादिक हीन होते हैं और क्षुधादिकमें भी संक्लेश थोड़ा होता है। इसलिये शुभोपयोगका अभ्यास करना। उद्यम करने पर भी यदि कामादिक व क्षुधादिक पीड़ित करते हैं तो उनके अर्थ जिससे थोड़ा पाप लगे वह करना। परन्तु शुभोपयोगको छोड़कर निःशंक पापरूप प्रवर्तन करना तो योग्य नहीं है। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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