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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates २०६] [ मोक्षमार्गप्रकाशक और तू कहता है - ज्ञानीके इच्छा नहीं है और शुभोपयोग इच्छा करनेसे होता है; सो जिस प्रकार कोई पुरुष किंचित्मात्र भी अपना धन देना नहीं चाहता, परन्तु जहाँ बहुत धन जाता जाने वहाँ अपनी इच्छासे थोड़ा धन देनेका उपाय करता है; उसी प्रकार ज्ञानी किंचित्मात्र भी कषायरूप कार्य नहीं करना चाहता, परन्तु जहाँ बहुत कषायरूप अशुभ कार्य होता जाने वहाँ इच्छा करके अल्प कषायरूप शुभ कार्य करनेका उद्यम करता है। - इसप्रकार यह बात सिद्ध हुई कि जहाँ शुद्धोपयोग होता जाने वहाँ तो शुभ कार्यका निषेध ही है और जहाँ अशुभोपयोग होता जाने वहाँ शुभका उपाय करके अंगीकार करना योग्य है। इसप्रकार अनेक व्यवहारकार्योंका उत्थापन करके जो स्वच्छन्दपनेको स्थापित करता है, उसका निषेध किया। केवल निश्चयाभासके अवलम्बी जीवकी प्रवृत्ति अब,उसी केवल निश्चयावलम्बी जीवकी प्रवृत्ति बतलाते हैं : एक शुद्धात्माको जाननेसे ज्ञानी हो जाते हैं - अन्य कुछ भी नहीं चाहिये; ऐसा जानकर कभी एकान्तमें बैठकर ध्यानमुद्रा धारण करके 'मैं सर्व कर्मोपाधिरहित सिद्धसमान आत्मा हूँ' – इत्यादि विचारसे संतुष्ट होता है; परन्तु यह विशेषण किसप्रकार सम्भव हैं - ऐसा विचार नहीं है। अथवा अचल, अखण्ड, अनुपमादि विशेषण द्वारा आत्माको ध्याता है; सो यह विशेषण अन्य द्रव्योंमें भी संभवित हैं। तथा यह विशेषण किस अपेक्षासे हैं सो विचार नहीं है। तथा कदाचित् सोते-बैठते जिस-तिस अवस्थामें ऐसा विचार रखकर अपनेको ज्ञानी मानता है। तथा ज्ञानीके आसव-बन्ध नहीं हैं - ऐसा आगममें कहा है; इसलिये कदाचित् विषय-कषायरूप होता है, वहाँ बन्ध होनेका भय नहीं है, स्वच्छन्द हुआ रागादिरूप प्रवर्तता है। सो स्व-परको जाननेका तो चिन्ह वैराग्यभाव है। सो समयसारमें कहा है : “ सम्यग्दृष्टेर्भवति नियतं ज्ञानवैराग्यशक्तिः " अर्थ :- सम्यग्दृष्टिके निश्चयसे ज्ञान-वैराग्यशक्ति होती है। १ सम्यग्दृष्टेर्भवति नियतं ज्ञानवैराग्यशक्तिः, स्वं वस्तुत्वं कलयितुमयं स्वान्यरूपाप्तिमुक्त्या । यस्माज्ज्ञात्वा व्यतिकरमिदं तत्त्वत: स्वं परं च, स्वस्मिन्नास्ते विरमति परात्सर्वतो रागयोगात् ।। (समयसार कलश १३६) Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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