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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates २०४] [ मोक्षमार्गप्रकाशक परिणाम शुद्ध मानता है। सो ऐसी मान्यतासे तेरे परिणाम अशुद्ध ही रहेंगे। फिर वह कहता है – परिणामोंको रोकें, बाह्य हिंसादिक भी कम करें; परन्तु प्रतिज्ञा करनेमें बन्धन होता है, इसलिये प्रतिज्ञारूप व्रत अंगीकार नहीं करना ? समाधान :- जिस कार्यको करनेकी आशा रहे उसकी प्रतिज्ञा नहीं लेते। और आशा रहे उससे राग रहता है। उस रागभावसे बिना कार्य किये भी अविरतिसे कर्मबन्ध होता रहता है; इसलिये प्रतिज्ञा अवश्य करने योग्य है। तथा कार्य करनेका बन्धन हुए बिना परिणाम कैसे रुकेंगे? प्रयोजन पड़ने पर तद्रूप परिणाम होंगे ही होंगे, तथा बिना प्रयोजन पड़े उसे आशा रहती है; इसलिये प्रतिज्ञा करना योग्य है। फिर वह कहता है - न जाने कैसा उदय आये और बादमें प्रतिज्ञा भंग हो, तो महापाप लगता है। इसलिये प्रारब्ध अनुसार कार्य बने सो बनो, प्रतिज्ञाका विकल्प नहीं करना? समाधान :- प्रतिज्ञा ग्रहण करते हुए जिसका निर्वाह होता न जाने, वह प्रतिज्ञा तो न करे; प्रतिज्ञा लेते ही यह अभिप्राय रहे कि प्रयोजन पड़ने पर छोड़ दूंगा, तो वह प्रतिज्ञा या कार्यकारी हुई ? प्रतिज्ञा ग्रहण करते हुए तो यह परिणाम है कि मरणान्त होनेपर भी नहीं छोड़ेंगा, तो ऐसी प्रतिज्ञा करना युक्त ही है। बिना प्रतिज्ञा किये अविरत सम्बन्धी बन्ध नहीं मिटता। तथा आगामी उदयके भयसे प्रतिज्ञा न ली जाये, तो उदयको विचारनेसे सर्व ही कर्त्तव्यका नाश होता है। जैसे- अपनेको पचता जाने उतना भोजन करे। कदाचित् किसीको भोजनसे अजीर्ण हुआ हो, और उस भयसे भोजन करना छोड़ दे तो मरण ही होगा। उसी प्रकार अपनेसे निर्वाह होता जाने उतनी प्रतिज्ञा करे। कदाचित् किसीके प्रतिज्ञासे भ्रष्टपना हुआ हो और उस भयसे प्रतिज्ञा करना छोड़ दे तो असंयम ही होगा; इसलिये जो बन सके वह प्रतिज्ञा लेना योग्य है। तथा प्रारब्ध अनुसार तो कार्य बनता ही है, तू उद्यमी होकर भोजनादि किसलिये करता है ? यदि वहाँ उद्यम करता है तो त्याग करनेका भी उद्यम करना योग्य ही है। जब प्रतिमावत् तेरी दशा हो जायेगी तब हम प्रारब्ध ही मानेंगे, तेरा कर्त्तव्य नहीं मानेंगे। इसलिये स्वच्छन्द होनेकी युक्ति किसलिये बनाता है ? बने वह प्रतिज्ञा करके व्रत धारण करना योग्य ही है। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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