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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates सातवाँ अधिकार] [२०३ तथा वह तपश्चरण को वृथा क्लेश ठहराता है; सो मोक्षमार्गी होनेपर तो संसारी जीवोंसे उल्टी परिणति चाहिये। संसारियोंको इष्ट-अनिष्ट सामग्रीसे राग-द्वेष होता है, इसके राग-द्वेष नहीं होना चाहिये। वहाँ राग छोड़नेके अर्थ इष्ट सामग्री भोजनादिकका त्यागी होता है, और द्वेष छोड़नेके अर्थ अनिष्ट सामग्री अनशनादिको अंगीकार करता है। स्वाधीनरूपसे ऐसा साधन हो तो पराधीन इष्ट-अनिष्ट सामग्री मिलने पर भी राग-द्वेष न हो, सो होना तो ऐसा ही चाहिये; परन्तु तुझे अनशनादिसे द्वेष हुआ, इसलिये उसे क्लेश ठहराया। जब यह क्लेश हुआ तब भोजन करना सुख स्वयमेव ठहरा और वहाँ राग आया; सो ऐसी परिणति तो संसारियोंके पाई ही जाती है, तूने मोक्षमार्गी होकर क्या किया ? यदि तू कहेगा – कितने ही सम्यग्दृष्टि भी तपश्चरण नहीं करते हैं। उत्तर :- कारण विशेषसे तप नहीं हो सकता, परन्तु श्रद्धानमें तो तपको भला जानते हैं और उसके साधनका उद्यम रखते हैं। तुझे तो श्रद्धान यह है कि तप करना क्लेश है, तथा तपका तेरे उद्यम नहीं है, इसलिये तुझे सम्यग्दृष्टि कैसे हो ? फिर वह कहता है - शास्त्रमें ऐसा कहा है कि तप आदिका क्लेश करता है तो करो, ज्ञान बिना सिद्धि नहीं है ? उत्तर :- जो जीव तत्त्वज्ञानसे तो पराङ्मुख हैं, तपहीसे मोक्ष मानते हैं, उनको ऐसा उपदेश दिया है - तत्त्वज्ञानके बिना केवल तपहीसे मोक्षमार्ग नहीं होता। तथा तत्त्वज्ञान होनेपर रागादिक मिटाने के अर्थ तप करनेका तो निषेध है नहीं। यदि निषेध हो तो गणधरादिक तप किसलिए करें ? इसलिये अपनी शक्ति अनुसार तप करना योग्य है। तथा वह व्रतादिकको बन्धन मानता है; सो स्वच्छन्दवृत्ति तो अज्ञान अवस्थामें ही थी, ज्ञान प्राप्त करने पर तो परिणतिको रोकता ही है। तथा उस परिणतिको रोकनेके अर्थ बाह्य हिंसादिक कारणोंका त्यागी अवश्य होना चाहिये। फिर वह कहता है - हमारे परिणाम तो शुद्ध हैं; बाह्य त्याग नहीं किया तो नहीं किया ? उत्तर :- यदि यह हिंसादि कार्य तेरे परिणाम बिना स्वयमेव होते हों तो हम ऐसा मानें। और यदि तू अपने परिणामसे कार्य करता है तो वहाँ तेरे परिणाम शुद्ध कैसे कहें ? विषय-सेवनादि क्रिया अथवा प्रमादरूप गमनादि क्रिया परिणाम बिना कैसे हो? वह क्रिया तो स्वयं उद्यमी होकर तू करता है और वहाँ हिंसादिक होते हैं उन्हें गिनता नहीं है, Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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