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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पाँचवा अधिकार] [१५७ धर्मका अन्यथा स्वरूप तथा धर्मका स्वरूप अन्यथा कहते हैं। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र इनकी एकता मोक्षमार्ग है, वही धर्म है – परन्तु उसका स्वरूप अन्यथा प्ररूपित करते हैं सो कहते हैं : तत्त्वार्थश्रद्धान सम्यग्दर्शन है; उसकी तो प्रधानता नहीं है। आप जिस प्रकार अरहंतदेव-साधु-गुरु-दया-धर्मका निरूपण करते हैं उसके श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहते हैं। वहाँ प्रथम तो अहँतादिकका स्वरूप अन्यथा कहते हैं; तथा इतने ही श्रद्धानसे तत्त्वश्रद्धान हुए बिना सम्यक्त्व कैसे होगा? इसलिये मिथ्या कहते हैं। तथा तत्त्वोंके भी श्रद्धानको सम्यक्त्व कहते हैं तो प्रयोजनसहित तत्त्वोंका श्रद्धान नहीं कहते। गुणस्थान-मार्गणादिरूप जीवका, अणु-स्कन्धादिरूप अजीवका, पाप-पुण्यके स्थानोंका , अविरत आदि आस्रवोंका , व्रतादिरूप संवरका , तपश्चरणादिरूप निर्जराका, सिद्ध होनेके लिंगादि के भेदोंसे मोक्षका स्वरूप जिस प्रकार उनके शास्त्रों में कहा है उस प्रकार सीख लेना; और केवलीका वचन प्रमाण है – ऐसे तत्त्वश्रद्धानसे सम्यक्त्व हुआ मानते हैं। सो हम पूछते हैं कि - ग्रैवेयक जानेवाले द्रव्यलिंगी मुनिके ऐसा श्रद्धान होता है या नहीं? यदि होता है तो उसे मिथ्यादृष्टि किसलिये कहते हैं ? और नहीं होता है तो उसने तो जैनलिंग धर्मबुद्धिसे धारण किया है, उसके देवादिकी प्रतीति कैसे नहीं हुई ? और उसके बहुत शास्त्राभ्यास है सो उसने जीवादिके भेद कैसे नहीं जाने ? और अन्यमतका लवलेश भी अभिप्राय में नहीं है, उसको अरहंत वचनकी कैसे प्रतीति नहीं हुई ? इसलिये उसके ऐसा श्रद्धान तो होता है; परन्तु सम्यक्त्व नहीं हुआ। तथा नारकी, भोग-भूमिया, तिर्यंच आदिको ऐसा श्रद्धान होनेका निमित्त नहीं है, तथापि उनके बहुतकालपर्यन्त सम्यक्त्व रहता है, इसलिये उनके ऐसा श्रद्धान नहीं होता, तब भी सम्यक्त्व हुआ है। इसलिये सम्यक्श्रद्धानका स्वरूप यह नहीं है। सच्चा स्वरूप है उसका वर्णन आगे करेंगे सो जानना। तथा उनके शास्त्रोंका अभ्यास करना उसे सम्यग्ज्ञान कहते हैं; परन्तु द्रव्यलिंगी मुनिके शास्त्राभ्यास होनेपर भी मिथ्याज्ञान कहा है, असंयत सम्यग्दृष्टिका विषयादिरूप जानना उसे सम्यग्ज्ञान कहा है। इसलिये यह स्वरूप नहीं है। सच्चा स्वरूप आगे कहेंगे सो जानना। तथा उनके द्वारा निरूपित अणुव्रत-महाव्रतादिरूप श्रावक-यतिका धर्म धारण करनेसे सम्यक्चारित्र हुआ मानते हैं; परन्तु प्रथम तो व्रतादिका स्वरूप अन्यथा कहते है वह कुछ Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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