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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates १५६] [मोक्षमार्गप्रकाशक ___ उसे भी अंगीकार करके आहारकी इच्छा पूर्ण करनेकी चाह हुई, इसलिये यहाँ अतिलोभ हुआ। तथा तूने कहा – “मुनिधर्म कैसे नष्ट हुआ ?” परन्तु मुनिधर्ममें ऐसी तीव्रकषाय सम्भव नहीं है। तथा किसीके आहार देनेका परिणाम नहीं था और इसने उसके घरमें जाकर याचना की; वहाँ उसको संकोच हुआ और न देनेपर लोकनिंद्य होनेका भय हुआ, इसलिये उसे आहार दिया, परन्तु उसके (दातारके) अंतरंग प्राण पीड़ित होनेसे हिंसाका सद्भाव आया। यदि आप उसके घर में न जाते, उसीके देनेका उपाय होता तो देता, उसे हर्ष होता। यह तो दबाकर कार्य कराना हुआ। तथा अपने कार्यके अर्थ याचनारूप वचन है वह पापरूप है, सो यहाँ असत्य वचन भी हुआ। तथा उसके देनेकी इच्छा नहीं थी, इसने याचना की, तब उसने अपनी इच्छासे नहीं दिया, संकोचसे दिया इसलिये अदत्तग्रहण भी हुआ। तथा गृहस्थके घरमें स्त्री जैसी-तैसी बैठी थी और यह चला गया, सो वहाँ ब्रह्मचर्यकी बाड़का भंग हुआ। तथा आहार लाकर कितने काल तक रखा; आहारादिके रखनेको पात्रादिक रखे वह परिग्रह हुआ। इस प्रकार पाँच महाव्रतोंका भंग होनेसे मुनिधर्म नष्ट होता है, इसलिये मुनिको याचनासे आहार लेना युक्त नहीं है । फिर वह कहता है – मुनिके बाईस परीषहोंमें याचना परीषह कहा है; सो माँगे बिना उस परीषहका सहना कैसे होगा ? समाधान :- याचना करनेका नाम याचनापरीषह नहीं है। याचना न करनेका नाम याचनापरीषह है। जैसे - अरति करनेका नाम अरतिपरीषह नहीं है; अरति न करनेका नाम अरतिपरीषह है - ऐसा जानना। यदि याचना करना परीषह ठहरे तो रंकादि बहुत याचना करते हैं, उनके बहुत धर्म होगा। और कहोगे - मान घटानेके कारण इसे परीषह कहते हैं, तो किसी कषाय-कार्यके अर्थ कोई कषाय छोड़ने पर भी पापी ही होता है। जैसे - कोई लोभके अर्थ अपने अपमानको भी न गिने तो उसके लोभकी तीव्रता है, उस अपमान करानेसे भी महापाप होता है। और आपके कुछ इच्छा नहीं है, कोई स्वयमेव अपमान करे तो उसके महाधर्म है; परन्त यहाँ तो भोजनके लोभके अर्थ याचना करके अपमान कराया इसलिये पाप ही है, धर्म नहीं है। तथा वस्त्रादिकके अर्थ भी याचना करता है, परन्तु वस्त्रादिक कोई धर्मका अंग नहीं है, शरीर सुखका कारण है इसलिये पूर्वोक्त प्रकारसे उसका निषेध जानना। देखो, अपने धर्मरूप उच्चपदको याचना करके नीचा करते हैं सो उसमें धर्मकी हीनता होती हैं। इत्यादि अनेक प्रकारसे मुनिधर्ममें याचना आदि सम्भव नहीं है; परन्तु ऐसी असम्भवित क्रियाके धारकको साधु-गुरु कहते हैं। इसलिये गुरुका स्वरूप अन्यथा कहते हैं । Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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