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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates १५८ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक पहले गुरु वर्णनमें कहा है। तथा द्रव्यलिंगीके महाव्रत होनेपर भी सम्यक्चारित्र नहीं होता, और उनके मतके अनुसार गृहस्थादिकके महाव्रतादि बिना अंगीकार किये भी सम्यक्चारित्र होता है। इसलिये यह स्वरूप नहीं है। सच्चा स्वरूप दूसरा है सो आगे कहेंगे। यहाँ वे कहते हैं द्रव्यलिंगीके अन्तरंगमें पूर्वोक्त श्रद्धानादिक नहीं हुए, बाह्य ही हुए हैं; इसलिये सम्यक्त्वादि नहीं हुए । उत्तर :- यदि अन्तरंग नहीं है और बाह्य धारण करता है, तो वह कपटसे धारण करता है। और उसके कपट हो तो ग्रैवेयक कैसे जाये ? वह तो नरकादिमें जायेगा। बन्ध तो अन्तरंग परिणामों से होता है; इसलिए अन्तरंग जैनधर्मरूप परिणाम हुए बिना ग्रैवेयक जाना सम्भव नहीं है । तथा व्रतादिरूप शुभोपयोगहीसे देवका बन्ध मानते हैं और उसीको मोक्षमार्ग मानते हैं, सो बन्धमार्ग मोक्षमार्ग को एक किया; परन्तु यह मिथ्या है। तथा व्यवहारधर्ममें अनेक विपरीतताएँ निरूपित करते हैं। निंदकको मारने में पाप नहीं है ऐसा कहते हैं; परन्तु अन्यमती निन्दक तीर्थंकरादिकके होनेपर भी हुए; उनको इन्द्रादिक मारते नहीं हैं; यदि पाप न होता तो इन्द्रादिक क्यों नहीं मारते ? तथा प्रतिमाजी के आभरणादि बनाते हैं; परन्तु प्रतिबिम्ब तो वीतरागभाव बढ़ानेके लिए स्थापित किया था, आभरणादि बनानेसे अन्यमतकी मूर्तिवत यह भी हुए। इत्यादि कहाँ तक कहें? अनेक अन्यथा निरूपण करते हैं। इसप्रकार श्वेताम्बर मत कल्पित जानना । यहाँ सम्यग्दर्शनादिकके अन्यथा निरूपणसे मिथ्यादर्शनादिकहीकी पुष्टता होती है; इसलिये उसका श्रद्धानादि नहीं करना। ढूँढकमत विचार तथा इन श्वेताम्बरोंमें ही ढूँढिये प्रगट हुए हैं; वे अपनेको सच्चा धर्मात्मा मानते हैं, सो भ्रम है । किसलिये ? सो कहते हैं : कितने ही तो भेष धारण करके साधु कहलाते हैं; परन्तु उनके ग्रन्थोंके अनुसार भी व्रत, समिति, गुप्ति आदिका साधन भासित नहीं होता। और देखो! मन-वचनकाय, कृत-कारित - अनुमोदनासे सर्व सावद्ययोग त्याग करनेकी प्रतिज्ञा करते हैं; बादमें पालन नहीं करते । बालकको व भोलेको व शूद्रादिकको भी दीक्षा देते हैं। इस प्रकार त्याग करते Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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