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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ८४] [ मोक्षमार्गप्रकाशक आधीन नहीं हैं। तथा कदाचित् दुःख दूर करने के निमित्त कोई इष्ट संयोगादि कार्य बनता है तो वह भी कर्म के अनुसार बनता है । इसलिये उनका उपाय करके वृथा ही खेद करता है। इस प्रकार निर्जरातत्त्वका अयथार्थ ज्ञान होनेपर अयथार्थ श्रद्धान होता है । मोक्षतत्त्व सम्बन्धी अयथार्थ श्रद्धान तथा सर्व कर्मबंध के अभाव का नाम मोक्ष है। जो बंधको तथा बंधजनित सर्व दुःखो को नहीं पहिचाने उसको मोक्षका यथार्थ श्रद्धान कैसे हो ? जैसे किसीको रोग है; वह उस रोगको तथा रोगजनित दुःखको न जाने तो सर्वथा रोगके अभावको कैसे भला माने ? उसी प्रकार इसके कर्मबंधन है; यह उस बंधनको तथा बंधजनित दुःखको न जाने तो सर्वथा बंधके अभावको कैसे भला जाने ? तथा इस जीवको कर्मोंका और उनकी शक्तिका तो ज्ञान है नहीं; इसलिये बाह्य पदार्थोंको दुःखका कारण जानकर उनका सर्वथा अभाव करने का उपाय करता है। तथा यह तो जानता है कि सर्वथा दुःख दूर होने का कारण इष्ट सामग्रियोंको जुटा कर सर्वथा सुखी होना है, परन्तु ऐसा कदापि नहीं हो सकता। यह वृथा ही खेद करता है। इसप्रकार मिथ्यादर्शन से मोक्षतत्त्वका अयथार्थ ज्ञान होनेपर अयथार्थ श्रद्धान है। इसप्रकार यह जीव मिथ्यादर्शन के कारण जीवादि सात तत्त्वोंका जो कि प्रयोजनभूत हैं उनका अयथार्थ श्रद्धान करता है। पुण्य-पाप सम्बन्धी अयथार्थ श्रद्धान तथा पुण्य-पाप हैं सो इन्हींके विशेष हैं और इन पुण्य-पापकी एक जाति है; तथापि मिथ्यादर्शन से पुण्यको भला जानता है, पापको बुरा जानता है । पुण्यसे अपनी इच्छानुसार किचिंत् कार्य बने, उसको भला जानता है और पापसे इच्छानुसार कार्य नहीं बने, उसको बुरा जानता है; परन्तु दोनों ही आकुलता के कारण हैं इसलिये बुरे ही हैं। तथा यह अपनी मान्यता से वहाँ सुख - दुःख मानता है। परमार्थसे जहाँ आकुलता है वहाँ दुःख ही है; इसलिये पुण्य-पापके उदयको भला-बुरा जानना भ्रम ही है। तथा कितने ही जीव कदाचित् पुण्य-पापके कारण जो शुभ-अशुभभाव उन्हें भलाबुरा जानते हैं वह भी भ्रम ही है; क्योंकि दोनो ही कर्मबन्धनके कारण हैं। इस प्रकार पुण्य-पापका अयथार्थ ज्ञान होनेपर अयथार्थ श्रद्धान होता है । इस प्रकार अतत्त्वश्रद्धानरूप मिथ्यादर्शनका स्वरूप कहा । यह असत्यरूप है इसलिये इसीका नाम मिथ्यात्व है और यह सत्यश्रद्धानसे रहित है इसलिये इसीका नाम अदर्शन है। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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