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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates चौथा अधिकार ] [८३ इस प्रकार आस्रवतत्त्वका अयथार्थ ज्ञान होने पर अयथार्थ श्रद्धान होता है। बंधतत्त्व सम्बन्धी अयथार्थ श्रद्धान तथा इन आस्रवभावोंसे ज्ञानावरणादि कर्मोंका बन्ध होता है। उनका उदय होने पर ज्ञान-दर्शनकी हीनता होना, मिथ्यात्व-कषायरूप परिणमन होना, चाहा हुआ न होना, सुख -दुःख का कारण मिलना, शरीरसंयोग रहना, गति-जाति-शरीरादिका उत्पन्न होना, नीच-उच्च कुलका पाना होता है। इनके होनेमें मूलकारण कर्म है, उसे यह पहिचानता नहीं है, क्योंकि वह सूक्ष्म है, इसे दिखायी नही देता; तथा वह इसको इन कार्योंका कर्त्ता दिखायी नहीं देता; इसलिये इनके होनेमें या तो अपनेको कर्त्ता मानता है या किसी औरको कर्ता मानता है। तथा अपना या अन्यका कर्त्तापना भासित न हो तो मूढ़ होकर भवितव्य को मानता है। इस प्रकार बन्धतत्त्वका अयथार्थ ज्ञान होनेपर अयथार्थ श्रद्धान होता है। संवरतत्त्व सम्बन्धी अयथार्थ श्रद्धान तथा आस्रवका अभाव होना सो संवर है। जो आस्रवको यथार्थ नहीं पहिचाने उसे संवरका यथार्थ श्रद्धान कैसे हो? जैसे - किसीके अहितरूप आचरण है; उसे वह अहितरूप भासित न हो तो उसके अभावको हितरूप कैसे माने ? जैसे - जीवको आस्रवकी प्रवृत्ति है; इसे वह अहितरूप भासित न हो तो उसके अभावरूप संवरको कैसे हितरूप माने ? तथा अनादि से इस जीवको आस्रवभाव ही हुआ है, संवर कभी नहीं हुआ, इसलिये संवरका होना भासित नहीं होता। संवर होनेपर सुख होता है वह भासित नहीं होता। संवर से आगामी कालमें दुःख नहीं होगा वह भासित नहीं होता। इसलिये आस्रव का तो संवर करता नहीं है और उन अन्य पदार्थों को दुःखदायक मानता है, उन्हींके न होनेका उपाय किया करता है; परन्तु वे अपने आधीन नहीं हैं। वृथा ही खेदखिन्न होता है। इस प्रकार संवरतत्त्वका अयथार्थ ज्ञान होनेपर अयथार्थ श्रद्धान होता है। निर्जरातत्त्व सम्बन्धी अयथार्थ श्रद्धान तथा बन्धका एकदेश अभाव होना सो निर्जरा है। जो बन्धको यथार्थ नहीं पहिचाने उसे निर्जरा का यथार्थ श्रद्धान कैसे हो? जैसे – भक्षण किये हुए विष आदिकसे दुःखका होना न जाने तो उसे नष्ट करनेके उपायको कैसे भला जाने ? उसी प्रकार बन्धनरूप किये कर्मोसे दुःख होना न जाने तो उनकी निर्जराके उपायको कैसे भला जाने ? तथा इस जीवको इन्द्रियों द्वारा सूक्ष्मरूप जो कर्म उनका तो ज्ञान होता नहीं है और उनमें दुःखोंके कारणभूत शक्ति है उसका भी ज्ञान नहीं है; इसलिये अन्य पदार्थों के ही निमित्तको दुःखदायक जानकर उनका ही अभाव करने का उपाय करता है, परन्तु वे अपने Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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