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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates चौथा अधिकार ] [८५ मिथ्याज्ञानका स्वरूप अब मिथ्याज्ञानका स्वरूप कहते हैं :- प्रयोजनभूत जीवादि तत्त्वोंको अयथार्थ जाननेका नाम मिथ्याज्ञान है। उसके द्वारा उनको जाननेमें संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय होता है। वहाँ, ऐसे हैं कि ऐसे हैं ?' -इस प्रकार परस्पर विरुद्धता सहित दोरूप ज्ञान उसका नाम संशय है। जैसे - 'मैं आत्मा हूँ कि शरीर हूँ?' - ऐसा जानना। तथा 'ऐसा ही है' इस प्रकार वस्तुस्वरूपसे विरुद्धता सहित एकरूप ज्ञान उसका नाम विपर्यय है। जैसे - 'मैं शरीर हूँ' – ऐसा जानना। तथा 'कुछ है' ऐसा निर्धाररहित विचार उसका नाम अनध्यवसाय है। जैसे – 'मैं कोई हूँ' – ऐसा जानना। इसप्रकार प्रयोजनभूत जीवादि तत्त्वों में संशय, विपर्यय, अनध्यवसायरूप जो जानना हो उसका नाम मिथ्याज्ञान है। तथा अप्रयोजनभूत पदार्थों को यथार्थ जाने या अयथार्थ जाने उसकी अपेक्षा मिथ्याज्ञान-सम्यग्ज्ञान नाम नहीं है। जिस प्रकार मिथ्यादृष्टि रस्सीको रस्सी जाने तो सम्यग्ज्ञान नाम नहीं होता, और सम्यग्दृष्टि रस्सीको साँप जाने तो मिथ्याज्ञान नाम नहीं होता। यहाँ प्रश्न है कि - प्रत्यक्ष सच्चे-झूठे ज्ञान को सम्यग्ज्ञान-मिथ्याज्ञान कैसे न कहें ? समाधान :- जहाँ जानने ही का - सच-झूठका निर्धार करनेका - प्रयोजन हो वहाँ तो कोई पदार्थ है उसके सच-झूठ जाननेकी अपेक्षा ही सम्यग्ज्ञान-मिथ्याज्ञान नाम दिया जाता है। जैसे - प्रत्यक्ष-परोक्ष प्रमाणके वर्णन में कोई पदार्थ होता है; उसके सच्चे जानने रूप सम्यग्ज्ञानका ग्रहण किया है और संशयादिरूप जाननेको अप्रमाणरूप मिथ्याज्ञान कहा है। तथा यहाँ संसार-मोक्षके कारणभूत सच-झूठ जाननेका निर्धार करना है; वहाँ रस्सी, सर्पादिकका यथार्थ या अन्यथा ज्ञान संसार-मोक्षका कारण नहीं है, इसलिये उनकी अपेक्षा यहाँ सम्यग्ज्ञान-मिथ्याज्ञान नहीं कहे हैं। यहाँ तो प्रयोजनभूत जीवादिक तत्त्वोंके ही जानने की अपेक्षा सम्यग्ज्ञान-मिथ्याज्ञान कहे हैं। इसी अभिप्रायसे सिद्धान्तमें मिथ्यादृष्टिके तो सर्व जानने को मिथ्याज्ञान ही कहा और सम्यग्दृष्टि के सर्व जाननेको सम्यग्ज्ञान कहा। यहाँ प्रश्न है कि - मिथ्यादृष्टिको जीवादि तत्त्वोंका अयथार्थ जानना है, उसे मिथ्याज्ञान कहो; परन्तु रस्सी, सादिकके यथार्थ जाननेको तो सम्यग्ज्ञान कहो ? समाधान :- मिथ्यादृष्टि जानता है, वहाँ उसको सत्ता-असत्ताका विशेष नहीं है; इसलिये कारणविपर्यय व स्वरूपविपर्यय व भेदाभेदविपर्यय को उत्पन्न करता है। वहाँ जिसे जानता है उसके मूलकारणको नहीं पहचानता, अन्यथा कारण मानता है; वह तो कारणविपर्यय है। तथा जिसे जानता है उसके मूल वस्तुत्वरूप स्वरूपको नहीं पहचानता, Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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