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________________ तोड़ामरोड़ा जाता है। मनचाहे अर्थ निकाले जाते हैं। दोनों मत अपनी हठधर्मिता को पकड़- कर बैठते हैं। इससे तो उचित यही है कि अनुभूति की, भाव की बात पकड़कर देख लीजिए। जिनको होती है, होती है बस, वे हाथपर रखे आँवले की भाँति निकालकर तो नहीं बता सकते, न ही उसका शब्दों में वर्णन कर सकते है। परिणामों से प्राप्त शांति चेहरे पर फैली दिखायी देती है। बोलचाल, खान पान में, व्यवहार में समता, शांति झलकती है। कषाय में मंदता बरतती है। इसपर से जानो, मानो तो मानो, न मानो तो आपकी मर्जी !अनुभूति का विषय तो ऐसा है जिसको अनुभूति होती है,वह उसके ही अनुभूति का विषय है। जिसके हृदय में जो भाव बसते हैं,वही उनको जान सकते हैं ,या सर्वज्ञ जान सकते है ! किसीके हाँ या ना कहने से वह सत्य या असत्य नहीं हो सकता। यह तो एक अननुभूत आनंद की उपलब्धि है। 'जिन ढूँढा तिन पाईया गहरे पानी पैठ ! और पैठ के लिए परिश्रम,साधना की जरूरत है। एक मंदिरजी में एक महाराज आये । उन्होंने जो अर्थ बताये, दुसरे महाराज आये तो उन्होंने उन सभी संदर्भो को गलत करार दिया। कोई कहने लगा,शास्त्रसभा कराइए, तत्त्वचर्चा से अपने आप निर्णय हो जाता है। आजकल पहले जैसी धर्मसभाएँ भी तो नहीं होती, खंडन-मंडन नहीं होता। अगर होता भी है तो निर्णय लगना कठिन हो जाता है। निर्णय लग भी गया तो भी हम नहीं मानेंगे।'वाली हठधर्मिता का भी बोलबाला है ही! ___कोई कहते हैं, चतुर्थ गुणस्थान में शुद्धोपयोग नहीं होता' ऐसा मानने वालों का बहुमत है। पर क्या बहुमत किसी सिद्धांत के निर्णय की कसौटी हो सकता है? कोई इस निर्णय पर पहुँचते हैं कि 'जिसको जो ठीक लगे,करो, पर झगडे बढ़ाकर फूट तो मत पाडो । हाँ,उन्हें समझाया जा सकता है। अपने हक में मनवाया नहीं जा सकता।' ___ कोई कहता है, समाज में और भी कई समस्याएँ है। जिनके लिए हमे एक, संगठित होकर रहने की महति आवश्यकता है। काल बड़ा कठिन चल रहा है। ऐसे में मिथ्यात्व, मंत्रतंत्र,अनाचार,शिथिलाचार,भ्रष्टाचार कई प्रकार के आचार ! मंदिरों के झगड़े, लोभ, स्वार्थ के शिकारी ! मानव ने मानव को और मानव को प्रकृति ने भी खूब सताया है। क्या साधु क्या श्रावक, उँगली पर गिनने जितने चारित्र बचे हैं जिनके सामने नतमस्तक होने को मन करता है। अतः झगड़े मिटाओ !... यह बात तो समाज हित की अपेक्षा कहीं ठीक लगती भी है। ___ हम सोचते हैं, इन विषम स्थितियों में हमें भ्रष्टाचार मिटाने के लिए और सदाचार के उत्थान/सुधार के लिए एक शुद्धोपयोग ही आश्रय है। ताकि इन विषम परिस्थितियों में हम अपने आपको अपने धर्माधार से सम्भाल सकें। आत्मकल्याण का दूसरा कोई मार्ग नहीं है। कम से कम कोई शुद्धोपयोग से अपने आप को दुरुस्त करता है तो अवश्य करने दीजिए न! आज चारों तरफ मिथ्यात्व का जो प्रदूषण फैला है उससे शुद्धोपयोग का भाव तो कहीं अधिक ऊँचाई पर ही ले जाने वाला है न? पहले मिथ्यात्व, भ्रष्टाचार, अनाचार, तेरा-मेरा पंथ के झगड़े, अर्थलिप्सा, स्वार्थ के षड़यंत्रों से तो निबटिए न! शुद्धोपयोग होता है या नहीं इस विषय में उलझने से कहीं अधिक अपनी शक्तियाँ भ्रष्टाचार से निबटने में लगाना जरूरी
SR No.007151
Book TitleDharmmangal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLilavati Jain
PublisherLilavati Jain
Publication Year2009
Total Pages76
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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