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________________ है। शुद्ध आत्मधर्म जानने-मानने वालों को अब आपसी मतभेद भुलाकर अब अशुद्ध का / मिथ्यात्व का इंटकर मुकाबला करना होगा। हमारा सिद्धांत भो अंत में आत्मा की अनुभूति पर जाकर पहुंचता है। अगर आप की नजर में अनुभूति होती ही नहीं तो केवल आत्मा की बात करना भी तो आगमप्रणीत है न? तो करने दीजिए न ! आत्मानुभूति का चित्र देखकर ही क्यों न हो, उस निमित्त से भाव तो आयेंगे ही न ! परिणाम तो बदलेंगे न ! आर शुद्धात्मानुभूति होती है वैसा कहिए, या वैसा कहने दीजिए कि अपूर्व अवसर एवो क्यारे आवशे?' यों समझ लीजिए कि छह द्रव्य,सात तत्त्वों की समझपूर्वक मिथ्या परिणामों से वे बच ही रहे हैं न ! यह भी क्या कम है? वीतरागस्वरूप शुद्धोपयोगको प्राप्त करने के लिए यह संसारी जीव धर्म,मोक्ष का उद्यम करें तो कम से कम मिथ्या उद्यम तो छूटेगा न?कम से कम यह सोचकर देखें कि आपस में विवाद करने के स्थान पर आज कम से कम शुद्ध आत्मा की बात करने वालों को एक होकर मिथ्यात्व,अनाचार का उँटकर मुकाबला करना अत्यंत आवश्यक है। कम से कम तत्त्व मतभेदों के नाम पर हम एक दूसरे का विरोध तो न करें।उसके लिए पहले हमें आपसी इन मतभेदों को अलग रखना होगा। अतः पू. आ. विद्यानंदजी को नीति ठुकरावो मत गले लगाओ।'के स्वीकार करने की आज अत्याधिक आवश्यकता है। ___ इसी आत्मानुभूति के संदर्भ में अनेकों प्रमाण पेश किये गये हैं। फिर भी इस विषय पर अनेकों शंकाएँ भी उपस्थित की गयी है। आगम कहता है कि अज्ञान भ्रम की जननी है। अतः हम जानते हैं कि अब इस विषयपर कुछ कहने का कोई उपयोग नहीं होगा फिर भी इतना सोचकर भी हम एक बार प्रयास और करना चाहेंगे अवश्य ! क्यों कि आगे जवाब और भी है। देखिए, इतना आपने भी सोचा है, और थोडा सोच लीजिए। अगर उचित लगे तो मानने से मत चूकिए। हमारी गलती है तो हम भी मानने से नहीं चूकेंगे। ____ मुनि विशुद्धसागरजी (शिष्य विरांगसागरजी)सोलापुर में इस विषय पर अपने मत रख रहे हैं।एक बार भाई पं.ब्र.हेमचंदजी जैन (भोपाल)हमसे मिलने आये। उनसे इस विषय पर काफी चर्चा हुई। पं.श्री रतनलालजी बैनाड़ा से उनकी जो पत्रव्यवहारात्मक चर्चा हुई उन्होंने बतायी, हमने भी पढ़ी। उन्होंने जो भी कुछ संदर्भ दिये जो सबके पढ़ने योग्य लगे। अतः इस पुस्तिका के माध्यम से सबके सामने रखने का भाव हुआ। आशा है सभी अध्यात्म के मर्मज्ञ, रसिक इन विचारों का वीतराग भाव से स्वागत करेंगे।आपके इस विषय पर अभिप्राय से अवश्य अवगत करायेंगे ताकि हम भी अपने भाव अधिक निर्मल बना सकें। हम किसी भी आचार्य या मुनिराजों का, विद्वानों, पंडितों का अवमान नहीं करना चाहते। उनके प्रति पूर्ण आदर, भाव है। न हि अपने मतों की स्थापना का आग्रह है, हमारे विचार में शुद्ध धर्म को माननेवाले सब एक टो, बस, इतना कहना चाहते हैं। प्रमाणऔर भी बहुत हैं: जरा इन्हें भी देख लेना चाहिए । हो सकता है कि आपके भाव बदल जायें या अगर हमारी दृष्टि में कहीं कमियाँ है तो हम सुधार लेंगे,आइए, आपका स्वागत है एक स्वस्थ/वीतराग चर्चा के लिए,आत्मधर्म के विषय पर एकमत होने के लिए ! फिर मानो या न मानो,मर्जी आपकी!
SR No.007151
Book TitleDharmmangal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLilavati Jain
PublisherLilavati Jain
Publication Year2009
Total Pages76
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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