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________________ भी काल में , किसी के ज्ञान का उघाड़ कितना है? हाँ ! काल की कसौटी वहाँ ली जा सकती है जहाँ मूल शुद्ध उगम-प्रवाह में मिलावट कहाँ से आयी? प्रथम किसने की? यह जब खोजना हो तब वहाँ इतिहास की,काल की कसौटी उपयुक्त सिद्ध हो सकती है। भाषाएँ भी तो कई प्रकार से बदलती गयी, जो अनेकों संदर्भो में कभी इस पक्ष में तो कभी उस पक्ष में बुद्धि को लगाने में निमित्त बनती रहती है। संस्कृत, प्राकृत और आज की कई भाषाएँ ! उनके अर्थ लगाना भी कितना मुश्किल हो जाता है? प्राचीन भाषाओं के विद्वानों में भी अर्थ लगाने की समस्या पर एकमत नहीं होता । आज भी कुछ विद्वान अगर यह मानते हैं कि व्यवहार पहले होता है, निश्चय बाद में होता है। करें तो क्या करें? ऐसी समस्या जब निर्माण हो जाती है तब यह सोच लिया जाता है कि जो सर्वज्ञ प्रणीत/कथित है उसपर श्रद्धा/ विश्वास कर लेना चाहिए। परंतु कुछ ग्रंथों में सर्वज्ञ कथन के नाम पर जो मत प्रकाशित किये गये हैं उनमें भी कही-कहीं अंतर दिखायी देता है । तब अप्रयोजनभूत तत्त्वों के बारे में भले ही सर्वज्ञ कथित वचन को प्रमाण मान लें, परंतु प्रयोजनभूत तत्त्वों के मत-मतांतरों पर तो सर्वज्ञ कथित के नाम-आधार पर आँखें मूंदकर श्रद्धा या विश्वास नहीं किया जा सकता। क्यों कि वे कुंदकुंद जैसे पूर्वाचार्य भी कहते हैं कि सर्वज्ञों ने जो कहा है वही मैं कहता हूँ परंतु उसका भी स्वीकार तुम परीक्षा करके, स्वयं अनुभूति करके ही करो। जब ज्ञानी जनों को परीक्षाप्रधानी होकर प्रामाण्य या अनुमानों पर ही दृष्टि जमानी पड़ती है और जब ग्रंथ के प्रमाण या अर्थ के अनुमान भी काम नहीं आते और प्रश्न अनुत्तरित रह जाते हो तो अनुभव को प्रमाण मानना ही एक मात्र साधन बच जाता है। अर्थात् यह अनुभव सर्वज्ञ प्रणीत वचनों के आधार पर परीक्षा प्रधानता से करने में ही वस्तुस्वरूप के सत्यता का निर्णय हो सकता है। तब जिनको अनुभव हुआ वे अपने अनुभवों का आधार लें, जिनके केवल सर्वज्ञ प्रणीत वचनों का या ग्रंथों का ही आश्रय हो, और अपने अनुभवों में बात न उतरें, उनका समाधान अनुभव प्राप्तों के साथ क्या कभी हो सकता है? तब तो वे कहेंगे कि क्या प्रमाण है कि आपको • अनुभव हो गया है? तो उसका जवाब यह है कि चतुर्थ गुणस्थान में अत्यल्प, अंशमात्र क्यों न हो, शुद्धोपयोग/शुद्धात्मानुभूति होतो है जो जाति अपेक्षा से उसी पूर्ण अनुभूति के समान है। 'नहीं होतो' कहने वाले भले ही कुछ कहे, पर होतो है' कहने वालों के पास भी अनेकों प्रमाण है। मोक्षमार्ग प्रकाशक ७ वे अधिकार में कहा गया है कि-जो आप्त भासित शास्त्र(प्रमाण) हैं उनमें कोई भी कथन प्रमाण विरूद्ध नहीं होता। क्यों कि या तो जानपना ही न हो या राग-द्वेष हो तब असत्य कहें। सो आप्त ऐसे होते नहीं है। तूने भली प्रकार परीक्षा नहीं की इसलिए भ्रम ... अब सवाल यह है कि भ्रम-किस को है? हमारे अल्पमती के अनुसार इस विवाद में सब से महत्वपूर्ण निर्णायक साधन भाषा-शब्द न होकर भाव है। अनुभूति-भाव-का विषय है। शब्दों के-भाषा के संदर्भ पकड़कर अर्थ निकालने में उलझना होता है, शब्दों को
SR No.007151
Book TitleDharmmangal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLilavati Jain
PublisherLilavati Jain
Publication Year2009
Total Pages76
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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