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________________ ५३ ब्र.पं. हेमचंद्र जैन दि. २८.११.२००५ • भोपाल आदरणीय आगमवेत्ता विद्वद्वर पं.श्री रतनलाल जी बैनाडा जैन सादर दर्शन विशुद्धि सह जयजिनेद्र। आपका ०१.११.०५ का लिखा पत्र मैसूर(कनकगिरि) यात्रा से वापिस लौटने पर प्राप्त हुआ। पत्र पढ़कर मन को किंचित् खेद हुआ कि आपने मुझे आगमाधार बिना मनमानी चर्चा करने वाला समझ लिया,जब कि मेरा जीवन आगम प्रमाण से वीतरागी वाणी को वीतराग भाव से साधर्मी वात्सल्यभाव से ग्रहण करने का रहा है। जो भी मैंने अपने पूर्व पत्र में लिखा, बिना आगम प्रमाण के कुछ नहीं लिखा, फिर मुझे अपने अल्प क्षयोपशम ज्ञान में आगम विहित कथनों जैसा भाव भासित हुआ, वही आपके विचारार्थ प्रस्तुत किया है। मैं एक मैकेनिकल इंजिनियर/वैज्ञानिक हूँ,अतः परीक्षा प्रधानी विशेष हूँ एवं निम्न लिखित श्लोक में विश्वास रखता हूँ। सूक्ष्म जिनोदित तत्त्वं, हेतुभिर्नैव हन्यते। आज्ञासिद्धं तु तद्ग्राह्यं, नान्यथावादिनो जिनः । आपने अब मेरे द्वारा लिखित पत्र को, अभिप्राय को, धैर्य से निष्पक्ष भाव से पढ़ लिया होगा, तथा जो कुछ नवीन जिज्ञासाएँ लिखी थी, उनका भी समाधान अवश्य भेजें, मैं पुनः पुनः विचार करूँगा। मैं रंचमात्र भी हठाग्रही,पूर्वाग्रही,दुराग्रही नहीं हूँ, मात्र इस पर्याय को सत्यग्राही किंवा सत्याग्रही(?)बनकर वीतराग देव-शास्त्र-गुरू की अनन्य श्रद्धापूर्वक समर्पित किया है। जैसा कि निम्न श्लोक में कहा है पक्षपातो न मे वीरे, न च द्वेष: कपिलादिषु। - युक्तिमद्वचनं यस्य, तस्य कार्यः परिग्रहः॥ अस्तु , आपने मुझसे कुछेक बातों के आगम प्रमाण देने को कहा है। तथा पंडितों (पं. टोडरमल जी, पं. गोपालदास जी बरैया, पंचाध्यायीकार कवि पं. राजमलजी पांडे आदि) के प्रमाण नहीं देने को कहा है। मात्र १२ वीं शताब्दि तक के ही आचार्य भगवंतों के कथनों को प्रामाणिक स्वीकार किया है । तो क्या आप १२ वीं शताब्दि से आज तक २१ वीं शताब्दि में या अब आगे पंचम काल के अंत तक सत्य सनातन दिगंबर जैन धर्म की/कुंदकुंद आम्नाय की मूलधारा का विच्छेद हो गया मानते हैं? यह निश्चित ही गंभीर विचारणीय बिंदु है। परमपूज्य श्रीमद् जयसेनाचार्य देव की समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय ग्रंथों पर लिखित अथवा परमात्मप्रकाश, बृहद्रव्य संग्रह पर श्री ब्रह्मदेवसूरि विरचित संस्कृत टीकाओं को आप प्रामाणिक नहीं मानते हैं? ऐसा दुःसाहस मैं नहीं कर सकता हूँ। मैं न तो आगम विरोधी हूँ, और न ही किसी व्यक्ति विशेष का ! हाँ, मैं आगम-अध्यात्म विरोधी कथनों का अवश्य विरोधी हूँ। और आगम प्रमाण कथनों का यथातथ्य
SR No.007151
Book TitleDharmmangal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLilavati Jain
PublisherLilavati Jain
Publication Year2009
Total Pages76
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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