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________________ स्वरूप प्रगट करने वाले आचार्यकल्प पं. टोडरमल जी, पं.दौलतराम जी आदि का अनंत उपकार मानता हूँ। संक्षेप में कहूँ तो अनंत ज्ञानियों (४, ५, ६ गुणस्थानवर्ती ज्ञानियों द्वारा लिखित, वर्तमान में उपलब्ध जिनागम)का एकसा अभिप्राय रूप मत/एकमत होता है तथा अनात्मज्ञ अज़ानी के अनंत (परस्पर विरूद्ध)मत या अनेक मत-पक्ष होते हैं-मानता हूँ। वर्तमान में जो भी भगवत् कुंदकुंदाचार्य की मूलान्माय के पोषक शास्त्र हैं, वे सर्व ही मुझे मान्य हैं। जब आपने मुझे प्रतिबंधित कर दिया कि १२ वीं शताब्दि तक के लिखे आचार्य ही प्रमाण रहते हैं तो फिर मैं इतनी प्रबल धारणा वाला व्यक्ति नहीं हूँ कि आपके द्वारा वांछित आगम प्रमाण दे सकूँ जो १२ वीं शताब्दि तक के आचार्यों द्वारा ही लिखे गये हों। तथापि किंचित प्रयास कर रहा हूँ, पक्षातिक्रांत होकर निर्णय करना होगा। १. कोई भी आगमज्ञ यह नहीं कहता कि प्रथम, द्वितीय, तृतीय गुणस्थानों में व्यवहार सम्यक्त्व होता है। प्रथम गुणस्थान में तो तत्त्वविचार, देव-गुरू-धर्म की सामान्य प्रतीति होती है। उसके बल पर ही यह जीव स्व-पर भेद विज्ञान करता हुआ यथार्थ तत्त्व प्रतीति करता है और शुद्धात्माभिमुख हो सविकल्प स्व-संवेदनपूर्वक निर्विकल्प स्वरूपोपलब्धि रूप विपरीताभिनिवेश रहित श्रद्धान रूप, निश्चय सम्यक्त्व रूप आत्मानुभूति को प्राप्त कर चतुर्थ गुणस्थानवर्ती अविरत सम्यग्दृष्टि हो जाता है। एतदर्थ अज्ञानी-ज्ञानी का लक्षण समयसार आत्मख्याति गाथा-१९ एवं ७५ में टीका में लिखा ही है। सम्यग्दर्शन की परिभाषाएँ प्रथमानुयोग एवं चरणानुयोग के अनुसार - | श्रद्धानं परमार्थानामाप्तागमतपोभृताम्। त्रिमूढापोढमष्टांग सम्यग्दर्शनमस्मयम्॥ तथा द्रव्यानुयोगानुसार - ‘तत्वार्थ श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्।' तथा करणानुयोगानुसार- 'मिथ्यात्वीदयाभावात् दर्शनमोहोदयाभावात् 'होने पर ही सम्यग्दर्शन का लक्षण कहा है। . समयसार जी आत्मख्याति गाथा २७६-२७७ में अभव्य को तत्त्वश्रद्धान होने पर भी मिथ्या श्रद्धान रहता है - लिखा है तथा प्रवचनसार जी तत्त्व.प्रदीपिका गाथा - २३९ में आत्मज्ञान शून्य को आगमज्ञान, तत्त्वश्रद्धान एवं संयम तीनों की युगपतता होने पर भी अकिंचित्कर कहा है। इससे सिद्ध होता है कि मात्र व्यवहार दृष्टि से सामान्य जैनी जनों को जिनको बाह्य जैनीपना (गृहित मिथ्यात्व से रहितपने रूप)प्रगट हो उनको व्यवहाराभासरूप व्यवहार सम्यक्त्व होता है, कहा जा सकता है, निमित्तों की ओर से द्वितीय गुणस्थानवर्ती जीव को सासादन सम्यग्दृष्टि कहा है। उसके सम्यग्दर्शन घातक अनंतानुबंधी कषाय का उदय हो आने से सासादन (विराधना सहित) सम्यग्दृष्टि कहा है। परमार्थत. औपशमिक सम्यक्त्व का ही काल है। इसीलिए प्रवचनसार गाथा-२०१ ता.वृ. टीका में दूसरे गुणस्थौन से बारहवें गुणस्थानवी जीवों को एकदेश जिन तक कहा है।
SR No.007151
Book TitleDharmmangal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLilavati Jain
PublisherLilavati Jain
Publication Year2009
Total Pages76
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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