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________________ रतनलाल बैनाडा पंचशील 1/ 205 बी, प्रोफेसर्स कॉलोनी दि. 01.11 . 2005 हरीपर्वत, आगराफोन - (0562)235 1428 - 285 2278 आ. हेमचंद्रजी सा. जयजिनेंद्र, आपका पत्र प्राप्त हुआ। सारे विषय देखे। सोचता हूँ कि यदि आपको वर्तमान काल के सर्वश्रेष्ठ ज्ञान एवं चारित्र के धनी पू. आ. श्री के चिंतन भी आगम विरूद्ध लगते हैं तो मेरी चर्चा से कुछ भी फल निकलना संभव नहीं है। फिर भी आप से अनुरोध है कि नीचे लिखे विषयों पर आगम प्रमाण शीघ्र भेजने का कष्ट करें। ताकि मैं उनको दृष्टिगत रखते हुए आपके पत्र का उत्तर दे सकूँ। - १. पहले, दूसरे, तीसरे गुणस्थान में व्यवहार सम्यक्त्व होता है। २. निश्चय सम्यक्त्व, चतुर्थ गुणस्थान या गृहस्थ अवस्था में होता है। ३. निश्चय सम्यक्त्व पहले होता है, व्यवहार सम्यक्त्व बाद में । या दोनों एक साथ ही उत्पन्न होते हैं। ४. राजा श्रेणिक के निश्चय सम्यक्त्व है (मैंने प्रमाण दिया था कि महाराजा भरत के व्यवहार सराग सम्यक्त्व-था.। आप भी कोई प्रमाण दीजिए कि राजा श्रेणिक के निश्चय सम्यक्त्व है। ५. अनंतानुबंधी के अभाव में स्वरूपाचरण चरित्र होता है। ६. स्वरूपाचरण की परिभाषा। ७. चतुर्थ गुणस्थान में शुद्धोपयोग होता है। (मैंने प्रमाण दिये हैं कि सप्तम गुणस्थान से शुद्धोपयोग होता है,आप भी प्रमाण भेजें कि चतुर्थ से होता है।) ८. चतुर्थ गुणस्थान में शुद्धात्मानुभूति होती है। ९. अविरत सम्यग्दृष्टि मोक्षमार्गी हैं। १०. शुभ भाव से संवर-निर्जरा नहीं होती। ११. आपने आद्या सम्यक्त्व चारित्रे।'(पृ.१४ का अर्थ-प्रथम मिथ्यात्व और अनंतानुबंधी वाले क्रोध-मान-माया-लोभ सम्यक्त्व और चारित्र इन दोनों को नहीं होने देते हैं। यह लिखा है। यह गलत है। कृपया दो बारा विचार कर सही अर्थ ग्रंथ में देख कर लिखिएगा। निवेदन-आप मनमानी चर्चा करते हैं। जब कि मुझे आगम वाक्य चाहिए। मुझे आप भावार्थ या अपना मंतव्य न लिखें। मुझे तो आचार्यों के श्लोक या टीका आदि मात्र ही लिखे। हमारी आपकी चर्चा का आधार आगम है। साथ ही पंडितों के प्रमाण न दें। (चाहें पं. टोडरमलजी हो, या पं. गोपालदास जी हो, पंचाध्यायीकार हो या अन्य।)आगम-लिखित आचार्यों के प्रमाण से ही चर्चा करें तो श्रेष्ठ रहेगा। मुझे तो बारहवीं शताब्दि तक के लिखे आचार्य ही प्रमाण रहते हैं। आशा है आप शीघ्र उत्तर भेजने का कष्ट करेंगे । शुभेच्छु - रतनलाल बैनाड़ा
SR No.007151
Book TitleDharmmangal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLilavati Jain
PublisherLilavati Jain
Publication Year2009
Total Pages76
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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