Book Title: samaysar
Author(s): Manoharlal Shastri
Publisher: Jain Granth Uddhar Karyalay

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Page 568
________________ परिशिष्टम् ] समयसारः । ५५५ प्रसिद्ध्या तल्लक्ष्यस्यात्मनः प्रसिद्धिः । ननु किमनया लक्षण प्रसिद्ध्या लक्ष्यमेव प्रसाधनीयं नाप्रसिद्धलक्षणस्य लक्ष्यप्रसिद्धिः ? प्रसिद्धलक्षणस्यैव तत्प्रसिद्धेः । ननु किं तल्लक्ष्यं यज्ज्ञानप्रसिद्ध्या ततो भिन्नं प्रसिद्ध्यति न ज्ञानाद्भिन्नं लक्ष्यं ज्ञानात्मनोर्द्रव्यत्वेनाप्रसिद्धत्वात् । तर्हि किं कृतो लक्षणविभागः ? प्रसिद्ध प्रसाध्यमानत्वात् कृतः । प्रसिद्धं हि ज्ञानं ज्ञानमात्रस्य स्वसंवेदनसिद्धत्वात् तेन प्रसिद्धेन प्रसाध्यमानस्तदविनाभूतानंतधर्मसमुदयमूर्तिरात्मा ततो ज्ञानमात्राचलितनिखातया दृष्ट्या क्रमाक्रमप्रवृत्तं तदविनाभूतं जाता अथ प्राभृताध्यात्मशब्दयोरर्थः कथ्यते । तद्यथा—यथा कोऽपि देवदत्तो राजदर्शनार्थं किंचि निश्चित ठहरा | कैसा है यह ? किसीसे जीता न जाय ऐसा जिनदेवका मत ( आज्ञा ) है | भावार्थ – यह अनेकांत ही निर्बाध जिनमत है सो जैसा वस्तुका स्वरूप है वैसा स्थापन करता हुआ अपने आप सिद्ध हुआ है । असत्कल्पनाकर वचनमात्र प्रलाप किसीने नहीं कहा। सो हे निपुण पुरुषो! अच्छीतरह विचारकर प्रत्यक्ष अनुमान प्रमाणसे अनुभव कर देखो। यहां कोई तर्क करता है कि आत्मा अनेकांतमयी है अनन्तधर्मा है तौ भी उसका ज्ञानमात्रपने से नाम किसलिये किया ? ज्ञानमात्र कहने में तो अन्य धर्मों का निषेध जाना है । उसका समाधान - यहां लक्षणकी प्रसिद्धिसे लक्ष्य की प्रसिद्धिकेलिये आत्माका ज्ञानमात्रपनेकर नाम किया है कि आत्मा ज्ञानमात्र है । यही कहते हैं- -आत्माका ज्ञान लक्षण है क्योंकि वह ज्ञान आत्माका असाधारण गुण है । यह ज्ञान किसी अन्य द्रव्य में नहीं पाया जाता इसलिये इस ज्ञानलक्षणकी प्रसिद्धिकर उससे लखने योग्य आत्माकी प्रसिद्धि होती है । लक्षण वही है जिसको बहुतकर सब जानें और लक्ष्य वह है कि जिसको प्रसिद्धपने न जान सकें । इसकारण लक्षण कहनेसे लक्ष्य प्रसिद्ध होता है । यहां फिर तर्क करता है कि इस लक्षणकी प्रसिद्धिसे क्या प्रयोजन ? लक्ष्य ही साधने योग्य है आत्माको ही साधना चाहिये । उसका समाधान - जिसके लक्षण अप्रसिद्ध है ऐसे अज्ञानी पुरुषके लक्ष्य की प्रसिद्धि नहीं होती । अज्ञानीको तो पहले लक्षण दिखाया जाय तब लक्ष्यको ग्रहण करता है क्योंकि जिसके लक्षण प्रसिद्ध हो उसीके उस लक्षण स्वरूप लक्ष्यकी प्रसिद्धि होती है । फिर पूछते हैं कि वह लक्ष्य जुदा ही क्या है जो ज्ञानकी प्रसिद्धिसे उससे जुदा ही सिद्ध होता है ? उसका उत्तर - ज्ञानसे जुदा ही लक्ष्य आत्मा नहीं है क्योंकि द्रव्यपनेकर ज्ञान और आत्मामें भेद नहीं है अभेद ही है । यहां फिर पूछते हैं कि ज्ञान आत्मा अभेदरूप है तो लक्ष्य लक्षणका भेद किसकर किया गया होता है ? उसका उत्तर प्रसिद्धिकर प्रसाध्यमानपना है उसकर किया भेद है । ज्ञान प्रसिद्ध है क्योंकि ज्ञानमात्रका स्वसंवेदनकर सिद्धपना है सब प्राणियोंके स्वसंवे'दनरूप अनुभव में आता है । उस प्रसिद्धिकर साधे हुए उस ज्ञानसे अविनाभावी जो अनंतधर्म उनका समुदायरूप अभिन्न देशरूप मूर्ति आत्मा है । इसलिये ज्ञानमात्रमें अच 1

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